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"ग्राम युवती / सुमित्रानंदन पंत" के अवतरणों में अंतर

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<poem>
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उन्मद यौवन से उभर 
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घटा सी नव असाढ़ की सुन्दर, 
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अति श्याम वरण, 
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श्लथ, मंद चरण, 
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इठलाती आती ग्राम युवति 
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वह गजगति 
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सर्प डगर पर!
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सरकाती-पट, 
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खिसकाती-लट, -
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शरमाती झट 
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वह नमित दृष्टि से देख उरोजों के युग घट!
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हँसती खलखल 
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अबला चंचल 
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ज्यों फूट पड़ा हो स्रोत सरल
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भर फेनोज्वल दशनों से अधरों के तट!
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वह मग में रुक, 
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मानो कुछ झुक, 
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आँचल सँभालती, फेर नयन मुख, 
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पा प्रिय पद की आहट;
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आ ग्राम युवक, 
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प्रेमी याचक, 
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जब उसे ताकता है इकटक, 
 +
उल्लसित, 
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चकित, 
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वह लेती मूँद पलक पट।
  
उन्मद यौवन से उभर <br>
+
पनघट पर 
घटा सी नव असाढ़ की सुन्दर <br>
+
मोहित नारी नर!--
अति श्याम वरण, <br>
+
जब जल से भर 
श्लथ, मंद चरण, <br>
+
भारी गागर 
इठलाती आती ग्राम युवति <br>
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खींचती उबहनी वह, बरबस 
वह गजगति <br>
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चोली से उभर उभर कसमस 
सर्प डगर पर !<br>
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खिंचते सँग युग रस भरे कलश;--
सरकती पट, <br>
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जल छलकाती,
खिसकाती लट, -<br>
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रस बरसाती,
शरमाती झट <br>
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बल खाती वह घर को जाती,
वह नमित दृष्टि से देख उरोजों के युग घट !<br>
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सिर पर घट 
हँसती खलखल <br>
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उर पर धर पट!
अबला चंचल <br>
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ज्यों फूट पड़ा हो स्रोत सरल<br>
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भर फेनोज्ज्वल दशनों से अधरों के तट !<br>
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वह मग में रुक, <br>
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मानो कुछ झुक, <br>
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आँचल सँभालती, फेर नयन मुख, <br>
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पा प्रिय पद की आहट;<br>
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आ ग्राम युवक, <br>
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प्रेमी याचक <br>
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जब उसे ताकता है इकटक, <br>
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उल्लसित, <br>
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चकित, <br>
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वह लेती मूँद पलक पट !<br><br>
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पनघट पर <br>
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कानों में गुड़हल  
मोहित नारी नर !-<br>
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खोंस,--धवल
जब जल से भर <br>
+
या कुँई, कनेर, लोध पाटल;  
भारी गागर <br>
+
वह हरसिंगार से कच सँवार,
खींचती उबहनी वह, बरबस <br>
+
मृदु मौलसिरी के गूँथ हार,
चोली से उभर उभर कसमस <br>
+
गउओं सँग करती वन विहार,
खिंचते सँग युग रस भरे कलश;-<br>
+
पिक चातक के सँग दे पुकार,--
जल छलकाती, <br>
+
वह कुंद, काँस से,
रस बरसाती, <br>
+
अमलतास से,
बल खाती वह घर को जाती, <br>
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आम्र मौर, सहजन, पलाश से, 
सिर पर घट <br>
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निर्जन में सज ऋतु सिंगार।
उर पर धर पट !<br><br>
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कानों में गुड़हल<br>
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खोंस, -धवल <br>
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या कुँई, कनेर, लोध पाटल;<br>
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वह हरसिंगार से कच सँवार, <br>
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मृदु मौलसिरी के गूँथ हार, <br>
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गउओं सँग करती वन विहार, <br>
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पिक चातक के सँग दे पुकार,-<br>
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वह कुंद, काँस से, <br>
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अमलतास से,<br><br>
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आम्र मौर, सहजन पलाश से, <br>
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तन पर यौवन सुषमाशाली,
निर्जन में सज ऋतु सिंगार !<br>
+
मुख पर श्रमकण, रवि की लाली,
तन पर यौवन सुषमाशाली<br>
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सिर पर धर स्वर्ण शस्य डाली,
मुख पर श्रमकण, रवि की लाली, <br>
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वह मेड़ों पर आती जाती,
सिर पर धर स्वर्ण शस्य डाली, <br>
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उरु मटकाती,
वह मेड़ों पर आती जाती, <br>
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कटि लचकाती,
उरु मटकाती, <br>
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चिर वर्षातप हिम की पाली
कटि लचकाती<br>
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धनि श्याम वरण,
चिर वर्षातप हिम की पाली <br>
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अति क्षिप्र चरण,
धनि श्याम वरण, <br>
+
अधरों से धरे पकी बाली।
अति क्षिप्र चरण, <br>
+
 
अधरों से धरे पकी बाली !<br><br>
+
रे दो दिन का 
 +
उसका यौवन!
 +
सपना छिन का 
 +
रहता न स्मरण!
 +
दुःखों से पिस, 
 +
दुर्दिन में घिस, 
 +
जर्जर हो जाता उसका तन!
 +
ढह जाता असमय यौवन धन!
 +
बह जाता तट का तिनका 
 +
जो लहरों से हँस-खेला कुछ क्षण!!  
  
रे दो दिन का <br>
+
रचनाकाल: दिसंबर’ ३९
उसका यौवन !<br>
+
</poem>
सपना छिन का <br>
+
रहता न स्मरण !<br>
+
दुःखों से पिस, <br>
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दुर्दिन में घिस, <br>
+
जर्जर हो जाता उसका तन !<br>
+
ढह जाता असमय यौवन धन !<br>
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बह जाता तट का तिनका <br>
+
जो लहरों से हँस खेला कुछ क्षण !!<br>
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14:02, 4 मई 2010 के समय का अवतरण

उन्मद यौवन से उभर
घटा सी नव असाढ़ की सुन्दर,
अति श्याम वरण,
श्लथ, मंद चरण,
इठलाती आती ग्राम युवति
वह गजगति
सर्प डगर पर!
 
सरकाती-पट,
खिसकाती-लट, -
शरमाती झट
वह नमित दृष्टि से देख उरोजों के युग घट!
हँसती खलखल
अबला चंचल
ज्यों फूट पड़ा हो स्रोत सरल
भर फेनोज्वल दशनों से अधरों के तट!
 
वह मग में रुक,
मानो कुछ झुक,
आँचल सँभालती, फेर नयन मुख,
पा प्रिय पद की आहट;
आ ग्राम युवक,
प्रेमी याचक,
जब उसे ताकता है इकटक,
उल्लसित,
चकित,
वह लेती मूँद पलक पट।

पनघट पर
मोहित नारी नर!--
जब जल से भर
भारी गागर
खींचती उबहनी वह, बरबस
चोली से उभर उभर कसमस
खिंचते सँग युग रस भरे कलश;--
जल छलकाती,
रस बरसाती,
बल खाती वह घर को जाती,
सिर पर घट
उर पर धर पट!

कानों में गुड़हल
खोंस,--धवल
या कुँई, कनेर, लोध पाटल;
वह हरसिंगार से कच सँवार,
मृदु मौलसिरी के गूँथ हार,
गउओं सँग करती वन विहार,
पिक चातक के सँग दे पुकार,--
वह कुंद, काँस से,
अमलतास से,
आम्र मौर, सहजन, पलाश से,
निर्जन में सज ऋतु सिंगार।
 
तन पर यौवन सुषमाशाली,
मुख पर श्रमकण, रवि की लाली,
सिर पर धर स्वर्ण शस्य डाली,
वह मेड़ों पर आती जाती,
उरु मटकाती,
कटि लचकाती,
चिर वर्षातप हिम की पाली
धनि श्याम वरण,
अति क्षिप्र चरण,
अधरों से धरे पकी बाली।

रे दो दिन का
उसका यौवन!
सपना छिन का
रहता न स्मरण!
दुःखों से पिस,
दुर्दिन में घिस,
जर्जर हो जाता उसका तन!
ढह जाता असमय यौवन धन!
बह जाता तट का तिनका
जो लहरों से हँस-खेला कुछ क्षण!!

रचनाकाल: दिसंबर’ ३९