Pratishtha (चर्चा | योगदान) (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत |संग्रह=ग्राम्या / सुमित्रानंदन पं...) |
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| + | ग्राम नहीं, वे ग्राम आज | ||
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| − | + | आज मिट गए दैन्य दुःख, | |
| − | + | सब क्षुधा तृषा के क्रंदन | |
| − | + | भावी स्वप्नों के पट पर | |
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| − | + | डूब गया रव घोर क्रांति का, | |
| − | + | शांत विश्व संघर्षण। | |
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| − | + | युग युग के बंदीगृह से | |
| − | + | मानवता निकली बाहर। | |
| − | + | नाच रहे रवि शशि, | |
| − | + | दिगंत में,-नाच रहे ग्रह उडुगण, | |
| − | + | नाच रहा भूगोल, | |
| − | + | नाचते नर नारी हर्षित मन। | |
| − | + | फुल्ल रक्त शतदल पर शोभित | |
| − | + | युग लक्ष्मी लोकोज्ज्वल | |
| − | + | अयुत करों से लुटा रही | |
| − | + | जन हित, जन बल, जन मंगल! | |
| − | + | ग्राम नहीं वे, नगर नहीं वे,-- | |
| − | + | मुक्त दिशा औ’ क्षण से | |
| − | + | जीवन की क्षुद्रता निखिल | |
| − | + | मिट गई मनुज जीवन से। | |
| − | + | </poem> | |
| − | ग्राम नहीं वे, नगर नहीं वे, | + | |
| − | मुक्त दिशा औ’ क्षण से | + | |
| − | जीवन की क्षुद्रता निखिल | + | |
| − | मिट गई मनुज जीवन | + | |
13:38, 4 मई 2010 के समय का अवतरण
ग्राम नहीं, वे ग्राम आज
औ’ नगर न नगर जनाकर,
मानव कर से निखिल प्रकृति जग
संस्कृत, सार्थक, सुंदर।
देश राष्ट्र वे नहीं,
जीर्ण जग पतझर त्रास समापन,
नील गगन है: हरित धरा:
नव युग: नव मानव जीवन।
आज मिट गए दैन्य दुःख,
सब क्षुधा तृषा के क्रंदन
भावी स्वप्नों के पट पर
युग जीवन करता नर्तन।
डूब गए सब तर्क वाद,
सब देशों राष्ट्रों के रण,
डूब गया रव घोर क्रांति का,
शांत विश्व संघर्षण।
जाति वर्ण की, श्रेणि वर्ग की
तोड़ भित्तियाँ दुर्धर
युग युग के बंदीगृह से
मानवता निकली बाहर।
नाच रहे रवि शशि,
दिगंत में,-नाच रहे ग्रह उडुगण,
नाच रहा भूगोल,
नाचते नर नारी हर्षित मन।
फुल्ल रक्त शतदल पर शोभित
युग लक्ष्मी लोकोज्ज्वल
अयुत करों से लुटा रही
जन हित, जन बल, जन मंगल!
ग्राम नहीं वे, नगर नहीं वे,--
मुक्त दिशा औ’ क्षण से
जीवन की क्षुद्रता निखिल
मिट गई मनुज जीवन से।