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− | चरखा रुकता है तो चलती है कैंची-सुई | + | चक्की रुकती है तो चरखा चलता है |
− | गरज यह कि चलता ही रहता है | + | चरखा रुकता है तो चलती है कैंची-सुई |
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− | बुहारती हुई पहाड़, वृक्ष, पत्थर– | + | तारे बुहारती हुई |
− | सृष्टि के सब टूटे-बिखरे कतरे जो | + | बुहारती हुई पहाड़, वृक्ष, पत्थर– |
− | एक टोकरी में जमा करती जाती है | + | सृष्टि के सब टूटे-बिखरे कतरे जो |
− | मन की दुछत्ती पर।< | + | एक टोकरी में जमा करती जाती है |
+ | मन की दुछत्ती पर। | ||
+ | </poem> |
16:42, 24 जनवरी 2020 के समय का अवतरण
मैं एक दरवाज़ा थी
मुझे जितना पीटा गया
मैं उतना ही खुलती गई।
अंदर आए आने वाले तो देखा–
चल रहा है एक वृहत्चक्र–
चक्की रुकती है तो चरखा चलता है
चरखा रुकता है तो चलती है कैंची-सुई
गरज यह कि चलता ही रहता है
अनवरत कुछ-कुछ !
... और अन्त में सब पर चल जाती है झाड़ू
तारे बुहारती हुई
बुहारती हुई पहाड़, वृक्ष, पत्थर–
सृष्टि के सब टूटे-बिखरे कतरे जो
एक टोकरी में जमा करती जाती है
मन की दुछत्ती पर।