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23:00, 17 अगस्त 2014 के समय का अवतरण
भरे गाल पर धरे हथेली
खिड़की में बैठी अलबेली
सोच रही है जाने क्या-क्या
हवा अकेली शाम की
बड़ी थकन के बाद मिली है
ये घड़ियाँ आराम की
चढ़ कर पर्वत, छू कर आई
जाने कहाँ कहाँ हो आई
तुमको क्या मालूम कि इसने
कहाँ-कहाँ पर ठोकर खाई
सुबह चली थी बनजारिन-सी
लेकिन अब गुम-सुम विरहिन-सी
बैठ गई है माला जपने
जाने किसके नाम की
ओढ़ धुँधलका हल्का-हल्का
सपना देख रही जंगल का
जबसे रूठ झील से आई
मुखड़ा मुरझा गया कमल का
भोली-भोली आँख चुरा कर
चोरी-चोरी नज़र मिला कर
गन्ध चुरा लाई चन्दन की
नज़र किसी गुलफ़ाम की