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खुले मैदान में इमारतों के पास ही
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भींजता दिन-रात बारिश में, धूप में, बूढ़ा हो रहा वह
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पौधा या पातगोभी बनने की राह में
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पृथ्वी से एकजान होने की राह में।
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ठीक उसी तरह, जिस तरह कोई याददाश्त
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रच-पच जाती है तुम्हारे स्वरूप में
  
 
'''(अनुवाद :  रमेशचंद्र शाह)'''
 
'''(अनुवाद :  रमेशचंद्र शाह)'''
 
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15:51, 18 अगस्त 2014 के समय का अवतरण

एक

मार्च का एक दिन
जा निकला हूँ
समुद्र तक और सुनता हूँ।
बर्फ़ इतनी नीली है, जितना कि आसमान
तड़क रही धूप में
धूप, जो बर्फ़ की पर्त के नीचे भी फुसफसा रही है
एक माइक पर खुदबुदाती, बड़बड़ाती
और लगता है दूर कहीं कोई एक चादर झटक रहा है।
यह सब इतिहासनुमा : अभी, बिल्कुल अभी।
हम निमग्न हैं, हम सुनते हैं।

दो

सम्मेलन, उड़ते द्वीपों से, जो कभी भी ढह सकते हैं...
तब फिरः एक लम्बा कँपकँपाता पुल समझौतों का
गुज़रेगा जिस पर समूचा यातायातः नक्षत्रों की छाँव में।
अजन्मे सुस्त चेहरों की छाँव में, बहिष्कृत जो
सूने अंतरिक्ष में, अनाम हिमकणों की तरह।
ग्योएटे घूम आया अफ़्रीका सन् छब्बीस में, जीद के चोले में
और देख आया सब-कुछ

तीन

कुछ चेहरे ज्यादा साफ़ हो आते हैं मरणोपरांत
देखी गई चीज़ों के कारण
जब बाँचे गए दैनिक समाचार अल्जीरिया के
प्रगट हुआ, बड़ा-सा मकान एक, जहाँ सारी खिड़कियाँ
काली पुती हुई थीं।
सिर्फ़-सिर्फ़ एक के। और वहाँ दीखा हमें ड्रेफ़स का चेहरा

चार

विद्रोही, प्रतिगामी साथ-साथ रहते हैं जैसे
एक दारुण दांपत्य में।
साँचों में एक-दूसरे के गढ़े जाते हुए
एक-दूसरे पर अवलंबित।
हम, जो हैं उन की संतान किंतु
होना ही होगा हमें उन से अलग।
प्रत्येक प्रश्न की पुकार अलग
भाषा है... ख़ास उस की अपनी
जासूसी कुत्ते की तरह, वहाँ जाओ तुम,
जहाँ भी सच्चाई ने छोड़े हों चरण-चिन्ह

पाँच

खुले मैदान में इमारतों के पास ही
रद्दी अख़बार एक पड़ा है महीनों से, ठुँसा हुआ ख़बरों से
भींजता दिन-रात बारिश में, धूप में, बूढ़ा हो रहा वह
पौधा या पातगोभी बनने की राह में
पृथ्वी से एकजान होने की राह में।
ठीक उसी तरह, जिस तरह कोई याददाश्त
रच-पच जाती है तुम्हारे स्वरूप में

(अनुवाद : रमेशचंद्र शाह)