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"वहाँ देखने को क्या था / विजेन्द्र" के अवतरणों में अंतर

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पुराने काग़जो के ढेर  
 
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टूटे-फूटे बर्तनो की पैनी किरचें
 
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बुझी राख  
 
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चूल्हे के उधिड़े कूल्हे  
 
चूल्हे के उधिड़े कूल्हे  

09:53, 11 जनवरी 2015 के समय का अवतरण

मैं उन इलाको में गया
जहाँ मकान चुप थे
उनके खाली पन को धूप उजला रही थी
हवा शांत, मथंर-
अपने डैने चौंच से काढ़ने को
बेचैन थी
लोग जा चुके है
उन्हे कुछ बाहुबलियों ने
फिलहाल खदेड़ दिया है
मुझे गहरे अकेले पन ने आ घेरा
वहाँ देखने को क्या था
स्मृती,अनुमान,दुख की पैनी धार
एक मटमैले खालीपन की गूँज तैर रही थी
न तो वहाँ उँगलियों के छापंे थे
न पांव के निशान
मैंने देखा खून के छाँटे काले पड़ चुके हैं
दीवारों को छूते ही
मिट्टी झड़ी
आवाज आई, ‘क्यों हमारे ज़ख्मों को
दुखाते हो।’
खाली घरो में देखे
पुराने काग़जो के ढेर
टूटे-फूटे बर्तनो की पैनी किरचें
शीशे के टुकड़े
बुझी राख
चूल्हे के उधिड़े कूल्हे
लगता है यहाँ से
डर के भाग गए!
तीनो टाँगो वाली कुर्सी
कौन में ऊँघ रही है
क्या इन चीजो को देख कर
पता लगता है
वे किस तरह रहते थे!
कितने दोआब
कितन तीर्थ अकुलाए हुए चुपचाप
इस कुल्हाड़े का पूर्वज
कहीं अंधेरे में छिपा है
हथौड़ा पहले चकमक का था
अब लौहे का
हड्डियों, चकमक और पत्थर की जगह इस्पात ने ले ली है
काल ने वही बचा के रखा है
जो सुंदर है
जीवन में टिकाऊ भी।