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{{KKRachna
|रचनाकार=राजू सारसर ‘राज’संजय आचार्य वरुण
|अनुवादक=
|संग्रह=म्हारै पांती रा सुपना मुट्ठी भर उजियाळौ / राजू सारसर ‘राज’संजय आचार्य वरुण
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<poem>
आपरै ही’ज
च्यारूमेर
घूमतौ बिना रूक्यां
अर, खुद ने ही’ज
देखतौ
अंजाणी निजरां सूं
इयां लागै के
खुद सूं ही करतौ हुवै
जांण पिछाण।
रस्तै बैंवतौ बैंवतौ
रूक जावतौ
झटकै सूं
चमगूंगौ हुयोड़ौ।
कदे देखै
ऊँची इमारतां ष्
कदे उडता हवाई जहाज
काळी दराख सड़क्यां
अर कदे
हवा रै लैरकै ज्यूं
आवती जावती
मोटरां गाड्यां
आभै उडता
चिड़ी कागला कबूतर
खंख अर धूंवै सूं
न्हावता रूंख
अर राम जाणें कांई कांई
सौ कीं देख’र
बो देखै
आपो आप ने
उळझ्योड़ी निजरां सूं
केई ताळ तांई।
फेर चालण लागै
आप रै मारग
बो मिनख कूण है?
म्है, तू, बो
या आपां सब।
</poem>