| 
				   | 
				
| (2 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | 
| पंक्ति 1: | 
पंक्ति 1: | 
| − | साकेत
  | + | इस प्रोजेक्ट में साकेत के तृतीय सर्ग तक का कुछ योगदान हो चुका है। आगे योगदान करने से पहले देख लें कि प्रोजेक्ट कहाँ तक बढ चुका है। देखने के लिये यहां क्लिक करें >>> [[मैथिलीशरण गुप्त]]  | 
| − |    | + |  | 
| − | राम, तुम्हारा वृत्त स्वयं ही काव्य है।
  | + |  | 
| − | कोई कवि बन जाए, सहज संभाव्य है।
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | श्री मैथिलीशरण गुप्त
  | + |  | 
| − | ---
  | + |  | 
| − | मानस-मुद्रण, झांसी में
  | + |  | 
| − | श्री सुमित्रानंदन गुप्त द्वारा मुद्रित।
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | संवत 2036 विक्रमी
  | + |  | 
| − | मूल्य 18.00 रुपए
  | + |  | 
| − | साहित्य-सदन
  | + |  | 
| − | चिरगांव (झांसी)
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | -----
  | + |  | 
| − | समर्पण
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | पितः, आज उसको हुए अष्टाविंशति वर्ष,
  | + |  | 
| − | दीपावली - प्रकाश में जब तुम गए सहर्ष।
  | + |  | 
| − | भूल गए बहु दुख-सुख, निरानंद-आनंद;
  | + |  | 
| − | शैशव में तुमसे सुने याद रहे ये छंद - 
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | "हम चाकर रघुवर के, पटौ लिखौ दरबार;
  | + |  | 
| − | अब तुलसी का होहिंगे नर के मनसबदार?
  | + |  | 
| − | तुलसी अपने राम को रीझ भजो कै खीज;
  | + |  | 
| − | उलटो-सूधो ऊगि है खेत परे को बीज।
  | + |  | 
| − | बनें सो रघुवर सों बनें, कै बिगरे भरपूर;
  | + |  | 
| − | तुलसी बनें जो और सों, ता बनिबे में घूर।
  | + |  | 
| − | चातक सुतहिं सिखावहीं, आन धर्म जिन लेहु;
  | + |  | 
| − | मेरे कुल की बानि है स्वांग बूंद सों नेहु।"
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | स्वयं तुम्हारा वह कथन भूला नहीं ललाम-
  | + |  | 
| − | "वहां कल्पना भी सफल, जहां हमारे राम।"
  | + |  | 
| − | तुमने इस जन के लिए क्या क्या किया न हाय!
  | + |  | 
| − | बना तुम्हारी तृप्ति का मुझसे कौन उपाय?
  | + |  | 
| − | तुम दयालु थे दे गए कविता का वरदान।
  | + |  | 
| − | उसके फल का पिंड यह लो निज प्रभु गुणगान।
  | + |  | 
| − | आज श्राद्ध के दिन तुम्हें, श्रद्धा-भक्ति-समेत,
  | + |  | 
| − | अर्पण करता हूं यही निज कवि-धन 'साकेत'।
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | अनुचर-
  | + |  | 
| − | मैथिलीशरण
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | दीपावली 1988
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | ---
  | + |  | 
| − | "परित्राणाय साधूनां, विनाशाय च दुष्कृतम्,
  | + |  | 
| − | धर्म संस्थापनार्थाय, सम्भवामि युगे युगे।"
  | + |  | 
| − | ***
  | + |  | 
| − | "इदं पवित्रं पापघ्नं पुण्य वेदैश्च सम्मितम्
  | + |  | 
| − | यः पठेद्रामचरितं सर्वपापैः प्रमुच्यते।"
  | + |  | 
| − | ***
  | + |  | 
| − | "त्रेतायां वर्त्तमानायां कालः कृतसमोsभवत्,
  | + |  | 
| − | रामे राजनि धर्मज्ञे सर्वभूत सुखावहे।"
  | + |  | 
| − | ***
  | + |  | 
| − | "निर्दोषमभवत्सर्वमाविष्कृतगुणं जगत्,
  | + |  | 
| − | अन्वागादिव हि स्वर्गो गां गतं पुरुषोत्तमम्।"
  | + |  | 
| − | ***
  | + |  | 
| − | "कल्पभेद हरि चरित सुहाए,
  | + |  | 
| − | भांति अनेक मुनीसन गाए।"
  | + |  | 
| − | ***
  | + |  | 
| − | "हरि अनंत, हरि कथा अनंता;
  | + |  | 
| − | कहहिं, सुनहिं, समुझहिं स्रुति-संता।"
  | + |  | 
| − | ***
  | + |  | 
| − | "रामचरित जे सुनत अघाहीं,
  | + |  | 
| − | रस विसेष जाना तिन्ह नाहीं।"
  | + |  | 
| − | ***
  | + |  | 
| − | "भरि लोचन विलोक अवधेसा,
  | + |  | 
| − | तब सुनिहों निरगुन उपदेसा।"
  | + |  | 
| − | ----
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | निवेदन
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | इच्छा थी कि सबके अंत में, अपने सहृदय पाठकों और साहित्यिक बंधुओं के सम्मुख "साकेत" समुपस्थित करके अपनी धृष्टता और चपलता के लिए क्षमा-याचना पूर्वक बिदा लूंगा। परंतु जो जो लिखना चाहता था, वह आज भी नहीं लिखा जा सका और शरीर शिथिल हो पड़ा। अतएव, आज ही उस अभिलाषा को पूर्ण कर लेना उचित समझता हूं।
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | परंतु फिर भी मेरे मन की न हुई। मेरे अनुज श्रीसियारामशरण मुझे अवकाश नहीं लेने देना चाहते। वे छोटे हैं, इसलिए मुझ पर उनका बड़ा अधिकार है। तथापि, यदि अब मैं कुछ लिख सका तो वह उन्हीं की बेगार होगी।
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | उनकी अनुरोध-रक्षा में मुझे संतोष ही होगा। परंतु यदि मुझे पहले ही इस स्थिति की संभावना होती तो मैं इसे और भी पहले पूरा करने का प्रयत्न करता और मेरे कृपालु पाठकों को इतनी प्रतीक्षा न करनी पड़ती। निस्संदेह पंद्रह-सोलह वर्ष बहुत होते हैं तथापि इस बीच में इसमें अनेक फेर-फार हुए हैं और ऐसा होना स्वाभाविक ही था।
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | आचार्य पूज्य द्विवेदीजी महाराज के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करना मानो उनकी कृपा मूल्य निर्धारित करने की ढिठाई करना है। वे मुझे न अपनाते तो मैं आज इस प्रकार, आप लोगों के समझ खड़े होने में भी समर्थ होता या नहीं, कौन कह सकता है।-
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | करते तुलसीदास भी कैसे मानस-नाद?-
  | + |  | 
| − | महावीर का यदि उन्हें मिलता नहीं प्रसाद।
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | विज्ञवर बार्हस्पत्यजी महोदय ने आरंभ से ही अपनी मार्मिक सम्मतियों से इस विषय में मुझे कृतार्थ किया है। अपनी शक्ति के अनुसार उनसे जितना लाभ मैं उठा सका, उसी को अपना सौभाग्य मानता हूं।
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | भाई कृष्णदास, अजमेरी और सियारामशरण की प्रेरणाएं और उनकी सहायताएं मुझे प्राप्त हुईं तो ऐसा होना उचित ही था स्वयं वे ही मुझे प्राप्त हुए हैं।
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | "साकेत" के प्रकाशित अंशों को देख-सुन कर जिन मित्रों ने मुझे उत्साहित किया है, मैं हृदय से उनका आभारी हूं। खेद है, उनमें से गणेशशंकर जैसा बंधु अब नहीं।
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | समर्थ सहायकों को पाकर भी अपने दोषों के लिए मैं उनकी ओट नहीं ले सकता। किसी की सहायता से लाभ उठा ले जाने में भी तो एक क्षमता चाहिए। अपने मन के अनुकूल होते हुए भी कोई कोई बात कहकर भी मैं नहीं कह सका। जैसे नवम सर्ग में ऊर्मिला का चित्रकूट-संबंधी यह संस्मरण-
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | मंझली मां से मिल गई क्षमा तुम्हें क्या नाथ?
  | + |  | 
| − | 'पीठ ठोककर ही प्रिये, मानें, मां के हाथ।'
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | परंतु इसी के साथ ऐसा भी प्रसंग आया है कि मुझे स्वयं अपने मन के प्रतिकूल ऊर्मिला का यह कथन लिखना पड़ा है-
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | मेरे उपवन के हरिण, आज वनचारी।
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | मन ने चाहा कि इसे यों कर दिया जाए -
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | मेरे मानसे के हंस, आज वनचारी।
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | परंतु इसे मेरे ब्रह्म ने स्वीकार नहीं किया। क्यों, मैं स्वयं नहीं जानता!
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | ऊर्मिला के विरह-वर्णन की विचार-धारा में भी मैंने स्वच्छंदता से काम लिया है।
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | यों तो "साकेत" दो वर्ष पूर्व ही पूरा हो चुका था; परंतु नवम सर्ग में तब भी कुछ शेष रह गया था और मेरी भावना के अनुसार आज भी यह अधूरा है। यह भी अच्छा ही है। मैं चाहता था कि मेरे साहित्यिक जीवन के साथ ही "साकेत" की समाप्ति हो। परंतु जब ऐसा नहीं हो सका, तब ऊर्मिला की निम्नोक्त आशा-निराशामयी उक्तियों के साथ उनका क्रम बनाए रखना ही मुझे उचित जान पड़ता है-
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | कमल, तुम्हारा दिन है और कुमुद, यामिनी तुम्हारी है,
  | + |  | 
| − | कोई हताश क्यों हो, आती सबती समान वारी है।
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | ध्न्य कमल, दिन जिसके, धन्य कुमुदल रात साथ में जिसके,
  | + |  | 
| − | दिन और रात दोनों होते हैं हाय! हाथ में किसके?
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | - मैथिलीशरण गुप्त
  | + |  | 
| − | 1988
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | ---
  | + |  | 
| − | जय देवमंदिर- देहली
  | + |  | 
| − | सम-भाव से जिस पर चढ़ी,-
  | + |  | 
| − | नृप-हेममुद्रा और रंकवराटिका।
  | + |  | 
| − | मुनि-सत्य-सौरभ की कली-
  | + |  | 
| − | कवि-कल्पना जिसमें बढ़ी,
  | + |  | 
| − |  फूले-फले साहित्य की वह वाटिका।
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | ----
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | राम, तुम मानव हो? ईश्वर नहीं हो क्या?
  | + |  | 
| − | विश्व में रमे हुए नहीं सभी कहीं हो क्या?
  | + |  | 
| − | तब मैं निरीश्वर हूं, ईश्वर क्षमा करे;
  | + |  | 
| − | तुम न रमो तो मन तुममें रमा करे।
  | + |  | 
| − | ---
  | + |  | 
| − | मंगलाचरण
  | + |  | 
| − | जयत कुमार-अभियोग-गिरा गौरी-प्रति,
  | + |  | 
| − | स - गण गिरीश जिसे सुन मुसकाते हैं-
  | + |  | 
| − | "देखो अंब, ये हेरंब मानस के तीर पर
  | + |  | 
| − | तुंदिल शरीर एक ऊधम मचाते हैं।
  | + |  | 
| − | गोद भरे मोदक धरे हैं, सविनोद उन्हें
  | + |  | 
| − | सूंड़ से उठाकर मुझे देने को दिखाते हैं,
  | + |  | 
| − | देते नहीं, कंदुक-सा ऊपर उछालते हैं,
  | + |  | 
| − | ऊपर ही झेलकर, खेल कर खाते हैं!"
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | ---
  | + |  | 
| − | श्रीगणेशायनमः
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | साकेत
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | प्रथम सर्ग
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | अयि दयामयि देवि, सुखदे, सारदे,
  | + |  | 
| − | इधर भी निज वरद-पाणि पसारदे।
  | + |  | 
| − | दास की यह देह-तंत्री सार दे,
  | + |  | 
| − | रोम - तारों में नई झंकार दे।
  | + |  | 
| − | बैठ, आ, मानस-मराल सनाथ हो,
  | + |  | 
| − | भार - वाही कंठ - केकी साथ हो।
  | + |  | 
| − | चल अयोध्या के लिए, सज साज तू,
  | + |  | 
| − | मां, मुझे कृतकृत्य कर दे आज तू।
  | + |  | 
| − | स्वर्ग से भी आज भूतल बढ़ गया,
  | + |  | 
| − | भाग्यभास्कर उदयगिरि पर चढ़ गया।
  | + |  | 
| − | हो गया निर्गुण सगुण-साकार है,
  | + |  | 
| − | ले लिया अखिलेश ने अवतार है।
  | + |  | 
| − | किस लिए यह खेल प्रभु ने है किया?
  | + |  | 
| − | मनुज बनकर मानवी का पय पिया?
  | + |  | 
| − | भक्त-वत्सलता इसी का नाम है।
  | + |  | 
| − | और यह वह लोकेश लीला-धाम है।
  | + |  | 
| − | पथ दिखाने के लिए संसार को,
  | + |  | 
| − | दूर करने के लिए भू-भार को,
  | + |  | 
| − | सफल करने के लिए जन-दृष्टियां,
  | + |  | 
| − | क्यों न करता वह स्वयं निज सृष्टियां?
  | + |  | 
| − | असुर-शासन शिशिर-मय हेमंत है,
  | + |  | 
| − | पर निकट ही राम-राज्य-वसंत है।
  | + |  | 
| − | पापियों का जान लो अब अंत है,
  | + |  | 
| − | भूमि पर प्रकटा अनादि-अनंत है।
  | + |  | 
| − | राम-सीता, धन्य धीरांबर-इला,
  | + |  | 
| − | शौर्य-सह संपत्ति, लक्ष्मण-ऊर्मिला।
  | + |  | 
| − | भरत कर्त्ता, मांडवी उनकी क्रिया;
  | + |  | 
| − | कीर्ति-सी श्रुतकीर्ति शत्रुघ्नप्रिया।
  | + |  | 
| − | ब्रह्म की हैं चार जैसी पूर्त्तियां,
  | + |  | 
| − | ठीक वैसी चार माया-मूर्त्तियां,
  | + |  | 
| − | धन्य दशरथ-जनक-पुण्योत्कर्ष है;
  | + |  | 
| − | धन्य भगवद्भूमि-भारतवर्ष है!
  | + |  | 
| − | देख लो, साकेत नगरी है यही,
  | + |  | 
| − | स्वर्ग से मिलने गगन में जा रही।
  | + |  | 
| − | केतु-पट अंचल-सदृश हैं उड़ रहे,
  | + |  | 
| − | कनक-कलशों पर अमर-दृग जुड़ रहे!
  | + |  | 
| − | सोहती है विविध-शालाएं बड़ी,
  | + |  | 
| − | छत उठाए भित्तियां चित्रित खड़ी।
  | + |  | 
| − | गेहियों के चारु-चरितों की लड़ी,
  | + |  | 
| − | छोड़ती है छाप, जो उन पर पड़ी!
  | + |  | 
| − | स्वच्छ, सुंदर और विस्तृत घर बनें,
  | + |  | 
| − | इंद्रधनुषाकार तोरण हैं तनें।
  | + |  | 
| − | देव-दंपति अट्ट देख सराहते,
  | + |  | 
| − | उतर कर विश्राम करना चाहतेष
  | + |  | 
| − | फूल-फल कर, फैल कर जी हैं बढ़ी,
  | + |  | 
| − | दीर्घ छज्जों पर विविध बेलें चढ़ीं।
  | + |  | 
| − | पौरकन्याएं प्रसून-स्तूप कर,
  | + |  | 
| − |  वृष्टि करती हैं यहीं से भूप पर।
  | + |  | 
| − | फूल-पत्ते हैं गवाक्षों में कढ़े,
  | + |  | 
| − | प्रकृति से ही वे गए मानो गढ़े।
  | + |  | 
| − | दामनी भीतर दमकती है कभी,
  | + |  | 
| − | चंद्र की माला चमकती है कभी।
  | + |  | 
| − | सर्वदा स्वच्छंद छज्जों के तले,
  | + |  | 
| − | प्रेम के आदर्श पारावत पले।
  | + |  | 
| − | केश-रचना के सहाक हैं शिखी,
  | + |  | 
| − | चित्र में मानो अयोध्या है लिखी!
  | + |  | 
| − | दृष्टि में वैभव भरा रहता सदा;
  | + |  | 
| − | घ्राण में आमोद है बहता सदा।
  | + |  | 
| − | ढालते हैं शब्द श्रुतियों में सुधा,
  | + |  | 
| − | स्वाद गिन पाती नहीं रसना-क्षुधा!
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | कामरूपी वारिदों के चित्र-से,
  | + |  | 
| − | इंद्र की अमरावती के मित्र-से,
  | + |  | 
| − | कर रहे नृप-सौध गगम-स्पर्श हैं,
  | + |  | 
| − | शिल्प-कौशल के परम आदर्श हैं।
  | + |  | 
| − | कोट-कलशों पर प्रणीत विहंग हैं,
  | + |  | 
| − | ठीक जैसे रूप, वैसे रंग हैं।
  | + |  | 
| − | वायु की गति गान देती है उन्हें,
  | + |  | 
| − | बांसुरी की तान देती है उन्हें।
  | + |  | 
| − | ठौर ठौर अनेक अध्वर-यूप हैं,
  | + |  | 
| − | जो सुसंवत के निदर्शन-रूप हैं।
  | + |  | 
| − | राघवों की इंद्र-मैत्री के बड़े,
  | + |  | 
| − | वेदियों के साथ साक्षी-से खड़े।
  | + |  | 
| − | मूर्तिमय, विवरण समेत, जुदे जुदे,
  | + |  | 
| − | ऐतिहासिक वृत्त जिनमें हैं खुदे,
  | + |  | 
| − | यत्र तत्र विशाल कीर्ति-स्तंभ हैं,
  | + |  | 
| − | दूर करते दानवों का दंभ हैं।
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | स्वर्ग की तुलना उचित ही है यहां,
  | + |  | 
| − | किंतु सुरसरिता कहां, सरयू कहां?
  | + |  | 
| − | वह मरों को मात्र पार उतारती,
  | + |  | 
| − | यह यहीं से जीवितों को तारती!
  | + |  | 
| − | अंगराग पुरांगनाओं के धुले,
  | + |  | 
| − | रंग देकर नीर में जो हैं धुले,
  | + |  | 
| − | दीखते उनसे विचित्र तरंग हैं,
  | + |  | 
| − | कोटि शक्र-शरास होते भंग हैं।
  | + |  | 
| − | है बनी साकेत नगरी नागरी, 
  | + |  | 
| − | और सात्विक-भाव से सरयू भरी।
  | + |  | 
| − | पुण्य की प्रत्यक्ष धारा वह रही।
  | + |  | 
| − | तीर पर हैं देव-मंदिर सोहते,
  | + |  | 
| − | भावुकों के भाव मन को मोहते।
  | + |  | 
| − | आस-पास लगी वहां फुलवारियां,
  | + |  | 
| − | हंस रही हैं खिलखिला कर क्यारियां।
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | है अयोध्या अवनि की अमरावती,
  | + |  | 
| − | इंद्र हैं दशरथ विदित वीरव्रती,
  | + |  | 
| − | वैजयंत विशाल उनके धाम हैं,
  | + |  | 
| − | और नंदन वन बने आराम हैं।
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | एक तरु के विविध सुमनों-से खिले,
  | + |  | 
| − | पौरजन रहते परस्पर हैं मिले।
  | + |  | 
| − | स्वस्थ, शिक्षित, शिष्ट उद्योगी सभी,
  | + |  | 
| − | बाह्यभोगी, आंतरिक योगी सभी।
  | + |  | 
| − | व्याधि की बाधा नहीं तन के लिए,
  | + |  | 
| − | आधि की शंका नहीं मन के लिए।
  | + |  | 
| − | चोर की चिंता नहीं धन के लिए,
  | + |  | 
| − | सर्व सुख हैं प्राप्त जीवन के लिए।
  | + |  | 
| − | एक भी आंगन नहीं ऐसा यहां,
  | + |  | 
| − | शिशु न करते हों कलित-क्रीड़ा जहां।
  | + |  | 
| − | कौन है ऐसा अभाग गृह कहो,
  | + |  | 
| − | साथ जिसके अश्व-गोशाला न हो?
  | + |  | 
| − | धान्य-धन-परिपूर्ण सबके धाम हैं,
  | + |  | 
| − | रंगशाला-से सजे अभिराम हैं।
  | + |  | 
| − | नागरों की पात्रता, नव नव कला,
  | + |  | 
| − | क्यों न दे आनंद लोकोत्तर भला?
  | + |  | 
| − | ठाठ है सर्वत्र घर या घाट है,
  | + |  | 
| − | लोक-लक्ष्मी की विलक्षण हाट है।
  | + |  | 
| − | सिक्त, शिश्चित-पूर्ण मार्ग अकाट्य है,
  | + |  | 
| − | घर सुघर नेपथ्य, बाहर नाट्य है!
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | अलग रहती हैं सदा ही ईतियां,
  | + |  | 
| − | भटकती हैं शून्य में ही भीतियां।
  | + |  | 
| − | नीतियों के साथ रहती रीतियां,
  | + |  | 
| − | पूर्ण हैं राजा-प्रजा की प्रीतियां।
  | + |  | 
| − | पुत्र रूपी चार फल पाए यहं,
  | + |  | 
| − | भूप को अब और कुछ पाना नहीं।
  | + |  | 
| − | बस यही संकल्प पूरा एक हो,
  | + |  | 
| − | शीघ्र ही श्रीराम का अभिषेक हो।
  | + |  | 
| − |    | + |  | 
| − | सूर्य का यद्यपि नहीं आना हुआ;
  | + |  | 
| − | किंतु समझो, रात का जाना हुआ।
  | + |  | 
| − | क्योंकि उसके अंग पीले पड़ चले;
  | + |  | 
| − | रम्य-रत्नाभरण ढीले पढ़ चले।
  | + |  | 
| − | एक राज्य न हो, बहुत से हों जहां,
  | + |  | 
| − | राष्ट्र का बल बिखर जाता है वहां।
  | + |  | 
| − | बहुत तारे थे, अंधेरा कब मिटा।
  | + |  | 
| − | सूर्य का आना सुना जब, तब मिटा।
  | + |  | 
| − | नींद के भी पैर हैं कंपने लगे,
  | + |  | 
| − | देखलो, लोचन-कुमुद झंपने लगे।
  | + |  | 
| − | वेष-भूषा साज ऊषा आ गई,
  | + |  | 
| − | मुख-कमल पर मुस्कराहट छ गई।
  | + |  | 
| − | पक्षियों की चहचहाहट हो उठी,
  | + |  | 
| − | स्वप्न के जो रंग थे वे घुल उठे,
  | + |  | 
| − | प्राणियों के नेत्र कुछ कुछ खुल उठे।
  | + |  | 
| − | दीप-कुल की ज्योति निष्प्रभ हो निरी,
  | + |  | 
| − | रह गई अब एक घेरे में घिरी।
  | + |  | 
| − | किंतु दिनकर आ रहा, क्या सोच है?
  | + |  | 
| − | उचित ही गुरुजन-निकट संकोच है।
  | + |  |