(New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय }}   यह सूरज का जपा-फूल  नैवेद्य चढ़ चला  सागर-हाथो...)  | 
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यह सूरज का जपा-फूल  | यह सूरज का जपा-फूल  | ||
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नैवेद्य चढ़ चला  | नैवेद्य चढ़ चला  | ||
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सागर-हाथों  | सागर-हाथों  | ||
| − | + | अम्बा तिरमिरायी को:  | |
| − | अम्बा तिरमिरायी को :  | + | |
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रुको साँस-भर,  | रुको साँस-भर,  | ||
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फिर मैं यह पूजा-क्षण  | फिर मैं यह पूजा-क्षण  | ||
| − | + | तुम को दे दूँगा।  | |
| − | तुम को दे   | + | |
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क्षण अमोघ है, इतना मैंने  | क्षण अमोघ है, इतना मैंने  | ||
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पहले भी पहचाना है  | पहले भी पहचाना है  | ||
| − | + | इस लिए साँझ को नश्वरता से नहीं बांधता।  | |
| − | इस लिए साँझ को नश्वरता से नहीं   | + | |
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किन्तु दान भी है अमोघ, अनिवार्य,  | किन्तु दान भी है अमोघ, अनिवार्य,  | ||
| − | + | धर्म:  | |
| − | धर्म :  | + | |
| − | + | ||
यह लोकालय में  | यह लोकालय में  | ||
| − | |||
धीरे-धीरे जान रहा हूँ  | धीरे-धीरे जान रहा हूँ  | ||
| − | + | (अनुभव के सोपान!)    | |
| − | (अनुभव के सोपान !)    | + | |
| − | + | ||
और  | और  | ||
| − | + | दान वह मेरा एक तुम्हीं को है।  | |
| − | दान वह मेरा एक तुम्हीं को   | + | यह एकोन्मुख तिरोभाव—  | 
| − | + | इतना-भर मेरा एकान्त निजी है—  | |
| − | यह एकोन्मुख   | + | मेरा अर्जित:  | 
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| − | इतना-भर मेरा एकान्त निजी   | + | |
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| − | मेरा अर्जित :  | + | |
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वही दे रहा हूँ  | वही दे रहा हूँ  | ||
| − | + | ओ मेरे राग-सत्य!  | |
| − | ओ मेरे राग-सत्य !  | + | |
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मैं    | मैं    | ||
| − | + | तुम्हें।  | |
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ऐसे तो हैं अनेक    | ऐसे तो हैं अनेक    | ||
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जिन के द्वारा  | जिन के द्वारा  | ||
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मैं जिया गया;  | मैं जिया गया;  | ||
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ऐसा है बहुत  | ऐसा है बहुत  | ||
| − | + | जिसे मैं दिया गया।  | |
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यह इतना  | यह इतना  | ||
| − | + | मैंने दिया।  | |
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अल्प यह लय-क्षण  | अल्प यह लय-क्षण  | ||
| + | मैंने जिया।  | ||
| − | + | आह, यह विस्मय!  | |
| − | + | उसे तुम्हें दे सकता हूँ मैं।  | |
| − | + | उसे दिया।  | |
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| − | आह, यह विस्मय !  | + | |
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| − | उसे तुम्हें दे सकता हूँ   | + | |
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इस पूजा-क्षण में  | इस पूजा-क्षण में  | ||
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सहज, स्वतः प्रेरित  | सहज, स्वतः प्रेरित  | ||
| + | मैंने संकल्प किया।  | ||
| − | + | <span style="font-size:14px">६ मार्च १९६३</span>  | |
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| − | ६ मार्च १९६३  | + | |
10:47, 13 अगस्त 2012 के समय का अवतरण
यह सूरज का जपा-फूल
नैवेद्य चढ़ चला
सागर-हाथों
अम्बा तिरमिरायी को:
रुको साँस-भर,
फिर मैं यह पूजा-क्षण
तुम को दे दूँगा।
क्षण अमोघ है, इतना मैंने
पहले भी पहचाना है
इस लिए साँझ को नश्वरता से नहीं बांधता।
किन्तु दान भी है अमोघ, अनिवार्य,
धर्म:
यह लोकालय में
धीरे-धीरे जान रहा हूँ
(अनुभव के सोपान!) 
और
दान वह मेरा एक तुम्हीं को है।
यह एकोन्मुख तिरोभाव—
इतना-भर मेरा एकान्त निजी है—
मेरा अर्जित:
वही दे रहा हूँ
ओ मेरे राग-सत्य!
मैं 
तुम्हें।
ऐसे तो हैं अनेक 
जिन के द्वारा
मैं जिया गया;
ऐसा है बहुत
जिसे मैं दिया गया।
यह इतना
मैंने दिया।
अल्प यह लय-क्षण
मैंने जिया।
आह, यह विस्मय!
उसे तुम्हें दे सकता हूँ मैं।
उसे दिया।
इस पूजा-क्षण में
सहज, स्वतः प्रेरित
मैंने संकल्प किया।
६ मार्च १९६३