"सन्ध्या-संकल्प / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर
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यह सूरज का जपा-फूल | यह सूरज का जपा-फूल | ||
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नैवेद्य चढ़ चला | नैवेद्य चढ़ चला | ||
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सागर-हाथों | सागर-हाथों | ||
− | + | अम्बा तिरमिरायी को: | |
− | अम्बा तिरमिरायी को : | + | |
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रुको साँस-भर, | रुको साँस-भर, | ||
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फिर मैं यह पूजा-क्षण | फिर मैं यह पूजा-क्षण | ||
− | + | तुम को दे दूँगा। | |
− | तुम को दे | + | |
− | + | ||
− | + | ||
क्षण अमोघ है, इतना मैंने | क्षण अमोघ है, इतना मैंने | ||
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पहले भी पहचाना है | पहले भी पहचाना है | ||
− | + | इस लिए साँझ को नश्वरता से नहीं बांधता। | |
− | इस लिए साँझ को नश्वरता से नहीं | + | |
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किन्तु दान भी है अमोघ, अनिवार्य, | किन्तु दान भी है अमोघ, अनिवार्य, | ||
− | + | धर्म: | |
− | धर्म : | + | |
− | + | ||
यह लोकालय में | यह लोकालय में | ||
− | |||
धीरे-धीरे जान रहा हूँ | धीरे-धीरे जान रहा हूँ | ||
− | + | (अनुभव के सोपान!) | |
− | (अनुभव के सोपान !) | + | |
− | + | ||
और | और | ||
− | + | दान वह मेरा एक तुम्हीं को है। | |
− | दान वह मेरा एक तुम्हीं को | + | यह एकोन्मुख तिरोभाव— |
− | + | इतना-भर मेरा एकान्त निजी है— | |
− | यह एकोन्मुख | + | मेरा अर्जित: |
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− | इतना-भर मेरा एकान्त निजी | + | |
− | + | ||
− | मेरा अर्जित : | + | |
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वही दे रहा हूँ | वही दे रहा हूँ | ||
− | + | ओ मेरे राग-सत्य! | |
− | ओ मेरे राग-सत्य ! | + | |
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मैं | मैं | ||
− | + | तुम्हें। | |
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− | + | ||
− | + | ||
ऐसे तो हैं अनेक | ऐसे तो हैं अनेक | ||
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जिन के द्वारा | जिन के द्वारा | ||
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मैं जिया गया; | मैं जिया गया; | ||
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ऐसा है बहुत | ऐसा है बहुत | ||
− | + | जिसे मैं दिया गया। | |
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यह इतना | यह इतना | ||
− | + | मैंने दिया। | |
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अल्प यह लय-क्षण | अल्प यह लय-क्षण | ||
+ | मैंने जिया। | ||
− | + | आह, यह विस्मय! | |
− | + | उसे तुम्हें दे सकता हूँ मैं। | |
− | + | उसे दिया। | |
− | + | ||
− | आह, यह विस्मय ! | + | |
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− | उसे तुम्हें दे सकता हूँ | + | |
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इस पूजा-क्षण में | इस पूजा-क्षण में | ||
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सहज, स्वतः प्रेरित | सहज, स्वतः प्रेरित | ||
+ | मैंने संकल्प किया। | ||
− | + | <span style="font-size:14px">६ मार्च १९६३</span> | |
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− | ६ मार्च १९६३ | + |
10:47, 13 अगस्त 2012 के समय का अवतरण
यह सूरज का जपा-फूल
नैवेद्य चढ़ चला
सागर-हाथों
अम्बा तिरमिरायी को:
रुको साँस-भर,
फिर मैं यह पूजा-क्षण
तुम को दे दूँगा।
क्षण अमोघ है, इतना मैंने
पहले भी पहचाना है
इस लिए साँझ को नश्वरता से नहीं बांधता।
किन्तु दान भी है अमोघ, अनिवार्य,
धर्म:
यह लोकालय में
धीरे-धीरे जान रहा हूँ
(अनुभव के सोपान!)
और
दान वह मेरा एक तुम्हीं को है।
यह एकोन्मुख तिरोभाव—
इतना-भर मेरा एकान्त निजी है—
मेरा अर्जित:
वही दे रहा हूँ
ओ मेरे राग-सत्य!
मैं
तुम्हें।
ऐसे तो हैं अनेक
जिन के द्वारा
मैं जिया गया;
ऐसा है बहुत
जिसे मैं दिया गया।
यह इतना
मैंने दिया।
अल्प यह लय-क्षण
मैंने जिया।
आह, यह विस्मय!
उसे तुम्हें दे सकता हूँ मैं।
उसे दिया।
इस पूजा-क्षण में
सहज, स्वतः प्रेरित
मैंने संकल्प किया।
६ मार्च १९६३