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"प्रातः संकल्प / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर

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ओ आस्था के अरुण !
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ओ आस्था के अरुण!
 
हाँक ला
 
हाँक ला
 
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उस ज्वलन्त के घोड़े।
उस ज्वलन्त के घोड़े ।
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खूँद डालने दे  
 
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खूँद दालने दे  
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तीखी आलोक-कशा के तले तिलमिलाते पैरों को  
 
तीखी आलोक-कशा के तले तिलमिलाते पैरों को  
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नभ का कच्चा आंगन!
  
नभ का कच्चा आँगन !
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बढ़ आ, जयी!
 
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सम्भाल चक्रमण्डल यह अपना।
 
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बढ़ आ, जयी !
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सम्भाल चक्रमण्डल यह अपना ।
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मैं कहीं दूर :
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मैं बँधा नहीं हूँ
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मैं कहीं दूर:
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मैं बंधा नहीं हूँ
 
झुकूँ, डरूँ,
 
झुकूँ, डरूँ,
 
 
दूर्वा की पत्ती-सा
 
दूर्वा की पत्ती-सा
 
 
नतमस्तक करूँ प्रतीक्षा
 
नतमस्तक करूँ प्रतीक्षा
 
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झंझा सिर पर से निकल जाए!
झंझा सिर पर से निकल जाय !
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मैं अनवरुद्ध, अप्रतिहत, शुचस्नात हूँ:
 
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मैं अनवरुद्ध, अप्रतिहत, शुचस्नान हूँ :
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तेरे आवाहन से पहले ही
 
तेरे आवाहन से पहले ही
 
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मैं अपने आप को लुटा चुका हूँ:
मैं अपने आप को लुटा चुका हूँ :
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अपना नहीं रहा मैं
 
अपना नहीं रहा मैं
 
 
और नहीं रहने की यह बोधभूमि
 
और नहीं रहने की यह बोधभूमि
 
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तेरी सत्ता से, सार्वभौम! है परे,
तेरी सत्ता से, सार्वभौम ! है परे,
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सर्वदा परे रहेगी।
 
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"एक मैं नहीं हूँ"
सर्वदा परे रहेगी ।
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अस्ति दूसरी इस से बड़ी नहीं है कोई।
 
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"एक मैं नहीं हूँ"--
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अस्ति दूसरी इस से बड़ी नहीं है कोई ।
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इस मर्यादातीत
 
इस मर्यादातीत
 
 
अधर के अन्तरीप पर खड़ा हुआ मैं
 
अधर के अन्तरीप पर खड़ा हुआ मैं
 
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आवाहन करता हूँ:
आवाहन करता हूँ :
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आओ, भाई!
 
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आओ, भाई !
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मैं तो नित्य उसी का हूँ जिस को
 
मैं तो नित्य उसी का हूँ जिस को
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:स्वेच्छा से दिया जा चुका!
  
::स्वेच्छा से दिया जा चुका !
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<span style="font-size:14px">७ मार्च १९६३</span>
 
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</poem>
७ मार्च १९६३
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00:44, 2 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

ओ आस्था के अरुण!
हाँक ला
उस ज्वलन्त के घोड़े।
खूँद डालने दे
तीखी आलोक-कशा के तले तिलमिलाते पैरों को
नभ का कच्चा आंगन!

बढ़ आ, जयी!
सम्भाल चक्रमण्डल यह अपना।

मैं कहीं दूर:
मैं बंधा नहीं हूँ
झुकूँ, डरूँ,
दूर्वा की पत्ती-सा
नतमस्तक करूँ प्रतीक्षा
झंझा सिर पर से निकल जाए!
मैं अनवरुद्ध, अप्रतिहत, शुचस्नात हूँ:
तेरे आवाहन से पहले ही
मैं अपने आप को लुटा चुका हूँ:
अपना नहीं रहा मैं
और नहीं रहने की यह बोधभूमि
तेरी सत्ता से, सार्वभौम! है परे,
सर्वदा परे रहेगी।
"एक मैं नहीं हूँ"—
अस्ति दूसरी इस से बड़ी नहीं है कोई।

इस मर्यादातीत
अधर के अन्तरीप पर खड़ा हुआ मैं
आवाहन करता हूँ:
आओ, भाई!
राजा जिस के होगे, होगे:
मैं तो नित्य उसी का हूँ जिस को
स्वेच्छा से दिया जा चुका!

७ मार्च १९६३