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"जीवन / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर

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चाबुक खाये
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मुँह लटकाए
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मानो धरे लकीर
 
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जमे खारे झागों की—
 
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रिरियाता कुत्ता यह
 
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पूँछ लड़खड़ाती टांगों के बीच दबाए।
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कटा हुआ  
 
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जाने-पहचाने सब कुछ से  
 
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इस सूखी तपती रेती के विस्तार से,
 
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और अजाने-अनपहचाने सब से
 
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दुर्गम, निर्मम, अन्तहीन
 
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उस ठण्डे पारावार से!
 
उस ठण्डे पारावार से!
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12:00, 2 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

चाबुक खाए
भागा जाता
सागर-तीरे
मुँह लटकाए
मानो धरे लकीर
जमे खारे झागों की—
रिरियाता कुत्ता यह
पूँछ लड़खड़ाती टांगों के बीच दबाए।

कटा हुआ
जाने-पहचाने सब कुछ से
इस सूखी तपती रेती के विस्तार से,
और अजाने-अनपहचाने सब से
दुर्गम, निर्मम, अन्तहीन
उस ठण्डे पारावार से!