भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"ग्रीष्म का मध्यान्ह / जयशंकर प्रसाद" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जयशंकर प्रसाद |अनुवादक= |संग्रह=क...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
 
पंक्ति 9: पंक्ति 9:
 
विमल व्योम में देव-दिवाकर अग्नि-चक्र से फिरते हैं
 
विमल व्योम में देव-दिवाकर अग्नि-चक्र से फिरते हैं
 
किरण नही, ये पावक के कण जगती-तल पर गिरते हैं  
 
किरण नही, ये पावक के कण जगती-तल पर गिरते हैं  
 +
 
छाया का आश्रय पाने को जीव-मंडली गिरती है
 
छाया का आश्रय पाने को जीव-मंडली गिरती है
 
चण्ड दिवाकर देख सती-छाया भी छिपती फिरती है
 
चण्ड दिवाकर देख सती-छाया भी छिपती फिरती है
 +
 
प्रिय वसंत के विरह ताप से घरा तप्त हो जाती है
 
प्रिय वसंत के विरह ताप से घरा तप्त हो जाती है
 
तृष्णा हो कर तृषित प्यास-ही-प्यास पुकार मचाती है
 
तृष्णा हो कर तृषित प्यास-ही-प्यास पुकार मचाती है
 +
 
स्वेद धूलि-कण धूप-लपट के साथ लिपटकर मिलते हैं
 
स्वेद धूलि-कण धूप-लपट के साथ लिपटकर मिलते हैं
 
जिनके तार व्योम से बँधकर ज्वाला-ताप उगिलते हैं
 
जिनके तार व्योम से बँधकर ज्वाला-ताप उगिलते हैं
 +
 
पथिक देख आलोक वही फिर कुछ भी देख न सकता है
 
पथिक देख आलोक वही फिर कुछ भी देख न सकता है
 
होकर चकित नहीं आगे तब एक पैर चल सकता है
 
होकर चकित नहीं आगे तब एक पैर चल सकता है
 +
 
निर्जन कानन में तरूवर जो खड़े प्रेत-से रहते है
 
निर्जन कानन में तरूवर जो खड़े प्रेत-से रहते है
 
डाल हिलाकर हाथों से वे जीव पकड़ना चाहते हैं
 
डाल हिलाकर हाथों से वे जीव पकड़ना चाहते हैं
देखो, वृक्ष शाल्मली का यह महा-भयावह कैया है
+
 
 +
देखो, वृक्ष शाल्मली का यह महा-भयावह कैसा है
 
आतप-भीत विहड़्गम-कुल का क्रन्दन इस पर कैसा है
 
आतप-भीत विहड़्गम-कुल का क्रन्दन इस पर कैसा है
 +
 
लू के झोंके लगने से जब डाल-सहित यह हिलता है
 
लू के झोंके लगने से जब डाल-सहित यह हिलता है
कुम्भकर्ण-सा कोटर-मुख से अगणित जीव उगिलता है
+
कुम्भकर्ण-सा कोटर-मुख से अगणित जीव उगिलता है
 +
 
 
हरे-हरे पत्‍ते वृक्षों के तापित को मुरझाते हैं
 
हरे-हरे पत्‍ते वृक्षों के तापित को मुरझाते हैं
देखादेखी सूख-सूखकर पृथ्वी पर गिर जाते हैंक
+
देखादेखी सूख-सूखकर पृथ्वी पर गिर जाते हैं
धूल उड़ता प्रबल प्रभंजन उनको साथ उड़ाता है
+
 
 +
धूल उड़ाता प्रबल प्रभंजन उनको साथ उड़ाता है
 
अपने खड़-खड़ शब्दों को भी उनके साथ बढ़ाता है
 
अपने खड़-खड़ शब्दों को भी उनके साथ बढ़ाता है
 
</poem>
 
</poem>

15:57, 2 अप्रैल 2015 के समय का अवतरण

विमल व्योम में देव-दिवाकर अग्नि-चक्र से फिरते हैं
किरण नही, ये पावक के कण जगती-तल पर गिरते हैं

छाया का आश्रय पाने को जीव-मंडली गिरती है
चण्ड दिवाकर देख सती-छाया भी छिपती फिरती है

प्रिय वसंत के विरह ताप से घरा तप्त हो जाती है
तृष्णा हो कर तृषित प्यास-ही-प्यास पुकार मचाती है

स्वेद धूलि-कण धूप-लपट के साथ लिपटकर मिलते हैं
जिनके तार व्योम से बँधकर ज्वाला-ताप उगिलते हैं

पथिक देख आलोक वही फिर कुछ भी देख न सकता है
होकर चकित नहीं आगे तब एक पैर चल सकता है

निर्जन कानन में तरूवर जो खड़े प्रेत-से रहते है
डाल हिलाकर हाथों से वे जीव पकड़ना चाहते हैं

देखो, वृक्ष शाल्मली का यह महा-भयावह कैसा है
आतप-भीत विहड़्गम-कुल का क्रन्दन इस पर कैसा है

लू के झोंके लगने से जब डाल-सहित यह हिलता है
कुम्भकर्ण-सा कोटर-मुख से अगणित जीव उगिलता है

हरे-हरे पत्‍ते वृक्षों के तापित को मुरझाते हैं
देखादेखी सूख-सूखकर पृथ्वी पर गिर जाते हैं

धूल उड़ाता प्रबल प्रभंजन उनको साथ उड़ाता है
अपने खड़-खड़ शब्दों को भी उनके साथ बढ़ाता है