"सुनी हैं साँसें / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर
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− | हम सदा जो नहीं सुनते | + | <poem> |
− | साँस अपनी | + | हम सदा जो नहीं सुनते |
− | या कि अपने ह्रदय की | + | साँस अपनी |
− | वह अकारण नहीं। | + | या कि अपने ह्रदय की गति— |
− | इन्हें सुनना है अकारण पकड़ जाना। | + | वह अकारण नहीं। |
− | स्वयं अपने से | + | इन्हें सुनना है अकारण पकड़ जाना। |
− | या कि अन्तःकरण में स्थित एक से। | + | स्वयं अपने से |
− | उपस्थित दोनों सदा हैं, | + | या कि अन्तःकरण में स्थित एक से। |
− | है हमें यह ज्ञान, पर भरसक इसे हम | + | उपस्थित दोनों सदा हैं, |
− | स्वयं अपने सामने आने नहीं देते। | + | है हमें यह ज्ञान, पर भरसक इसे हम |
− | ओट थोड़ी बने रहना ही भला | + | स्वयं अपने सामने आने नहीं देते। |
− | देवता से और अपने-आप से। | + | ओट थोड़ी बने रहना ही भला है— |
+ | देवता से और अपने-आप से। | ||
− | किन्तु मैं ने सुनी हैं साँसें | + | किन्तु मैं ने सुनी हैं साँसें |
− | सुनी है ह्रदय की धड़कन | + | सुनी है ह्रदय की धड़कन |
− | और, हाँ, पकड़ा गया हूँ | + | और, हाँ, पकड़ा गया हूँ |
− | औचक, बार-बार। | + | औचक, बार-बार। |
− | देवता का नाम यों ही नहीं लूँगा: | + | देवता का नाम यों ही नहीं लूँगा: |
− | पर जो दूसरा होता | + | पर जो दूसरा होता है—स्वयं मैं— |
− | सदा मैंने यही पाया है कि वह | + | सदा मैंने यही पाया है कि वह |
− | तुम हो: | + | तुम हो: |
− | कि जो-जो सुन पड़ी है साँस, | + | कि जो-जो सुन पड़ी है साँस, |
− | तुम्हारे बिम्ब को छूती बही है: | + | तुम्हारे बिम्ब को छूती बही है: |
− | जो धड़कन ह्रदय की | + | जो धड़कन ह्रदय की |
− | चेतना में फूट आई है हठीली | + | चेतना में फूट आई है हठीली |
− | नए अंकुर- | + | नए अंकुर-सी— |
− | तुम्हारे ध्यान से गूँथी हुई है। | + | तुम्हारे ध्यान से गूँथी हुई है। |
− | यह लो | + | यह लो |
− | अभी फिर सुनने लगा मैं | + | अभी फिर सुनने लगा मैं |
− | + | साँस—अभी कुछ गरमाने लगी-सी— | |
− | ह्रदय-स्पन्दन तीव्रतर होता हुआ-सा। | + | ह्रदय-स्पन्दन तीव्रतर होता हुआ-सा। |
− | लो | + | लो |
− | पकड़ देता | + | पकड़ देता हूँ— |
− | संभालो। | + | संभालो। |
− | साँस | + | |
− | स्पन्दन | + | साँस |
− | ध्यान | + | स्पन्दन |
− | और मेरा मुग्ध यह | + | ध्यान |
− | सब | + | और मेरा मुग्ध यह स्वीकार— |
− | (उस अजाने या अनाम देवता के बाद) | + | सब |
+ | (उस अजाने या अनाम देवता के बाद) | ||
तुम्हारे हैं। | तुम्हारे हैं। | ||
+ | </poem> |
21:35, 3 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
हम सदा जो नहीं सुनते
साँस अपनी
या कि अपने ह्रदय की गति—
वह अकारण नहीं।
इन्हें सुनना है अकारण पकड़ जाना।
स्वयं अपने से
या कि अन्तःकरण में स्थित एक से।
उपस्थित दोनों सदा हैं,
है हमें यह ज्ञान, पर भरसक इसे हम
स्वयं अपने सामने आने नहीं देते।
ओट थोड़ी बने रहना ही भला है—
देवता से और अपने-आप से।
किन्तु मैं ने सुनी हैं साँसें
सुनी है ह्रदय की धड़कन
और, हाँ, पकड़ा गया हूँ
औचक, बार-बार।
देवता का नाम यों ही नहीं लूँगा:
पर जो दूसरा होता है—स्वयं मैं—
सदा मैंने यही पाया है कि वह
तुम हो:
कि जो-जो सुन पड़ी है साँस,
तुम्हारे बिम्ब को छूती बही है:
जो धड़कन ह्रदय की
चेतना में फूट आई है हठीली
नए अंकुर-सी—
तुम्हारे ध्यान से गूँथी हुई है।
यह लो
अभी फिर सुनने लगा मैं
साँस—अभी कुछ गरमाने लगी-सी—
ह्रदय-स्पन्दन तीव्रतर होता हुआ-सा।
लो
पकड़ देता हूँ—
संभालो।
साँस
स्पन्दन
ध्यान
और मेरा मुग्ध यह स्वीकार—
सब
(उस अजाने या अनाम देवता के बाद)
तुम्हारे हैं।