"यात्री / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर
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− | प्रबुद्ध ने कहा: मन्दिरों में न जा, न जा! | + | <poem> |
− | वे हिन्दू हों, बौद्ध हों, जैन हों, | + | प्रबुद्ध ने कहा: मन्दिरों में न जा, न जा! |
− | मुस्लिम हों, मसीही हों, और हों, | + | वे हिन्दू हों, बौद्ध हों, जैन हों, |
− | देवता उनमें जो विराजें | + | मुस्लिम हों, मसीही हों, और हों, |
− | परुष हों, पुरुष हों, मधुर हों, करूण हों | + | देवता उनमें जो विराजें |
− | ::::कराल हों, स्त्रैण हों, | + | परुष हों, पुरुष हों, मधुर हों, करूण हों |
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− | धूप-दीप-नैवेद्य, कुछ न | + | किसी की आरती न कर, किसी के लिए रूप-थालों में |
− | न धन, न मन (नाम-रूप सब तन के) | + | धूप-दीप-नैवेद्य, कुछ न सजा— |
− | न जुटा पाथेय | + | न धन, न मन (नाम-रूप सब तन के) |
− | मन्दिरों में न जा, न जा! | + | न जुटा पाथेय कुछ— |
+ | मन्दिरों में न जा, न जा! | ||
− | बोधिसत्त्व ने कहा: तीर्थों को खोज चला है, | + | बोधिसत्त्व ने कहा: तीर्थों को खोज चला है, |
− | चलता जा | + | चलता जा |
− | + | मांग कि यात्रा लम्बी हो; | |
− | पथ ही | + | पथ ही जैसा-तैसा पाथेय जुटाता चले; |
− | परिग्रह के पत्ते ज्यों झरते त्यों ज्ञान के बीज तू पाता चले, | + | परिग्रह के पत्ते ज्यों झरते त्यों ज्ञान के बीज तू पाता चले, |
− | + | मांग की यात्रान्त न हो; | |
− | पथ पर ही भीतर से पकता | + | पथ पर ही भीतर से पकता |
− | तू बाहर सहज गलता जा। | + | तू बाहर सहज गलता जा। |
− | आज बोधि का धीमा स्वर सुना: | + | आज बोधि का धीमा स्वर सुना: |
− | तीर्थों में न भी हो पानी | + | तीर्थों में न भी हो पानी |
− | + | —या मन्दिरों में श्रद्धा, या देवता में सत्ता— | |
− | पर यात्रा में एक बात तो तूने पहचानी: | + | पर यात्रा में एक बात तो तूने पहचानी: |
− | कि तीर्थों को तेरी ही तितीर्षा गढ़ती रही। | + | कि तीर्थों को तेरी ही तितीर्षा गढ़ती रही। |
− | मन्दिरों में कहाँ कुछ होता है? | + | मन्दिरों में कहाँ कुछ होता है? |
− | तेरी ही गति वहाँ पूजा पर चढ़ती रही, | + | तेरी ही गति वहाँ पूजा पर चढ़ती रही, |
− | वही है मन्दिर का ऐश्वर्य, वही श्रद्धा की भी, | + | वही है मन्दिर का ऐश्वर्य, वही श्रद्धा की भी, |
− | ::::मूर्ति की भी अर्थवत्ता। | + | ::::मूर्ति की भी अर्थवत्ता। |
− | पग-पग पर तीर्थ है, | + | पग-पग पर तीर्थ है, |
− | मन्दिर भी बहुतेरे हैं; | + | मन्दिर भी बहुतेरे हैं; |
− | तू जितनी करे परिकम्मा, जितने लगा फेरे | + | तू जितनी करे परिकम्मा, जितने लगा फेरे |
− | मन्दिर से, तीर्थ से, यात्रा से, | + | मन्दिर से, तीर्थ से, यात्रा से, |
− | हर पग से, हर साँस से | + | हर पग से, हर साँस से |
− | कुछ मिलेगा, अवश्य मिलेगा, | + | कुछ मिलेगा, अवश्य मिलेगा, |
− | पर उतना ही जितने का तू है अपने भीतर से दानी! < | + | पर उतना ही जितने का तू है अपने भीतर से दानी! |
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21:47, 3 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
प्रबुद्ध ने कहा: मन्दिरों में न जा, न जा!
वे हिन्दू हों, बौद्ध हों, जैन हों,
मुस्लिम हों, मसीही हों, और हों,
देवता उनमें जो विराजें
परुष हों, पुरुष हों, मधुर हों, करूण हों
कराल हों, स्त्रैण हों,
अमूर्त्त हों
(या धूर्त हों)
किसी की आरती न कर, किसी के लिए रूप-थालों में
धूप-दीप-नैवेद्य, कुछ न सजा—
न धन, न मन (नाम-रूप सब तन के)
न जुटा पाथेय कुछ—
मन्दिरों में न जा, न जा!
बोधिसत्त्व ने कहा: तीर्थों को खोज चला है,
चलता जा
मांग कि यात्रा लम्बी हो;
पथ ही जैसा-तैसा पाथेय जुटाता चले;
परिग्रह के पत्ते ज्यों झरते त्यों ज्ञान के बीज तू पाता चले,
मांग की यात्रान्त न हो;
पथ पर ही भीतर से पकता
तू बाहर सहज गलता जा।
आज बोधि का धीमा स्वर सुना:
तीर्थों में न भी हो पानी
—या मन्दिरों में श्रद्धा, या देवता में सत्ता—
पर यात्रा में एक बात तो तूने पहचानी:
कि तीर्थों को तेरी ही तितीर्षा गढ़ती रही।
मन्दिरों में कहाँ कुछ होता है?
तेरी ही गति वहाँ पूजा पर चढ़ती रही,
वही है मन्दिर का ऐश्वर्य, वही श्रद्धा की भी,
मूर्ति की भी अर्थवत्ता।
पग-पग पर तीर्थ है,
मन्दिर भी बहुतेरे हैं;
तू जितनी करे परिकम्मा, जितने लगा फेरे
मन्दिर से, तीर्थ से, यात्रा से,
हर पग से, हर साँस से
कुछ मिलेगा, अवश्य मिलेगा,
पर उतना ही जितने का तू है अपने भीतर से दानी!