"हेमन्त का गीत / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर
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− | हो चुके पहली पेराई के मेले: | + | तोड़ लिए गए हैं सब सेब: सूनी हैं डालें। |
− | लाल हो कर काली भी पड़ गईं बग़ीचों में क़तारें: सूख | + | उतर चुके हैं अंगूर—गुच्छे के गुच्छे, |
− | :::::चली बेलें। | + | हो चुके पहली पेराई के मेले: |
+ | लाल हो कर काली भी पड़ गईं बग़ीचों में क़तारें: सूख | ||
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− | झील की कोखों से जहाँ झाँकते थे | + | झील की कोखों से जहाँ झाँकते थे |
− | धूप से सोना-मढ़े भाप के छल्ले | + | धूप से सोना-मढ़े भाप के छल्ले |
− | वहाँ अब मंडराता है घना नीला कुहरा | + | वहाँ अब मंडराता है घना नीला कुहरा |
− | मनहूस, बाँझ सन्नाटे को करता और गहरा।... | + | मनहूस, बाँझ सन्नाटे को करता और गहरा।... |
− | अनदेखे लाद ले गया है अपनी झोली में | + | अनदेखे लाद ले गया है अपनी झोली में |
− | काल का गली छानता हुआ कबाड़ी | + | काल का गली छानता हुआ कबाड़ी |
− | न जाने कितने दिन, कितने क्षण, | + | न जाने कितने दिन, कितने क्षण, |
− | कितनी अन्तहीन अनकही और अधूरी कही बातें, | + | कितनी अन्तहीन अनकही और अधूरी कही बातें, |
− | कितने संकेत, कितने स्पर्श-हर्ष, | + | कितने संकेत, कितने स्पर्श-हर्ष, |
− | उमंगें—अकुलाहटें; | + | उमंगें—अकुलाहटें; |
− | सिहरनों में घुलती और साँसों से नापी हुई रातें | + | सिहरनों में घुलती और साँसों से नापी हुई रातें |
− | ठिठकनें, आहटें; | + | ठिठकनें, आहटें; |
− | कितने कल्पना की आग में रूपायित हुए सपने, | + | कितने कल्पना की आग में रूपायित हुए सपने, |
− | कितना माल, जो पड़ा था तो मानो रद्दी था, | + | कितना माल, जो पड़ा था तो मानो रद्दी था, |
− | पर अब उस के हाथ चला गया तो सन्देह होता है | + | पर अब उस के हाथ चला गया तो सन्देह होता है |
− | कहीं हम ठगे तो नहीं गए? | + | कहीं हम ठगे तो नहीं गए? |
− | क्योंकि नहीं तो कहाँ है वह प्यार, कहाँ हो तुम, ओ मेरे | + | क्योंकि नहीं तो कहाँ है वह प्यार, कहाँ हो तुम, ओ मेरे |
− | :::::अपने, | + | :::::अपने, |
− | कहाँ है वे हम, जिनका निरन्तर अपने को भूलना ही | + | कहाँ है वे हम, जिनका निरन्तर अपने को भूलना ही |
− | जीना और होना था— | + | जीना और होना था— |
− | जहाँ अपने को राख-सा फूँक कर उड़ाते जाना | + | जहाँ अपने को राख-सा फूँक कर उड़ाते जाना |
− | दोनों को पाना था? | + | दोनों को पाना था? |
− | (भर ली गई हैं पुआलें | + | (भर ली गई हैं पुआलें |
− | खलिहानों में: | + | खलिहानों में: |
− | तोड़ लिए गए सब सेब: सूनी हैं डालें:) | + | तोड़ लिए गए सब सेब: सूनी हैं डालें:) |
− | रूपायित सपने तो गए भी (आख़िर सपने थे, | + | रूपायित सपने तो गए भी (आख़िर सपने थे, |
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− | क्या हुई वह रूपकल्पी आग? | + | क्या हुई वह रूपकल्पी आग? |
− | (उतर चुके अंगूर—गुच्छे के गुच्छे, | + | (उतर चुके अंगूर—गुच्छे के गुच्छे, |
− | हो चुके पेराई के मेले। | + | हो चुके पेराई के मेले। |
− | काली पड़ गईं क़तारें: लाल होकर सूख भी चली बेलें।) | + | काली पड़ गईं क़तारें: लाल होकर सूख भी चली बेलें।) |
− | रूपकल्पी आग! | + | रूपकल्पी आग! |
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− | आधी रात राख में कभी सुलग जाती हैं केवल सपने की | + | आधी रात राख में कभी सुलग जाती हैं केवल सपने की |
− | :::::परछाइयाँ। | + | :::::परछाइयाँ। |
− | (खलिहानों में भर ली गई हैं पुआलें...) | + | (खलिहानों में भर ली गई हैं पुआलें...) |
− | पड़ाव: थके पैर: क्या भूख? नहीं। शीत? नहीं। | + | पड़ाव: थके पैर: क्या भूख? नहीं। शीत? नहीं। |
− | तो कुछ तो कहो? कुछ नहीं, आँखों की दीठ मुझे घेरे रहे, | + | तो कुछ तो कहो? कुछ नहीं, आँखों की दीठ मुझे घेरे रहे, |
− | कुछ और नहीं चाहिए—उसी में गरमाई है, | + | कुछ और नहीं चाहिए—उसी में गरमाई है, |
− | तृप्ति है, सहलाहट है, उनींदा है जो नींद से भी मीठा है... | + | तृप्ति है, सहलाहट है, उनींदा है जो नींद से भी मीठा है... |
− | दूर-दूर, छूईमुई-से, पर कितने तुम मेरे रहे... | + | दूर-दूर, छूईमुई-से, पर कितने तुम मेरे रहे... |
− | भोर: चोरी से नहीं, अनजाने, अचानक | + | भोर: चोरी से नहीं, अनजाने, अचानक |
− | मैंने तुम्हें झरने पर देखा। | + | मैंने तुम्हें झरने पर देखा। |
− | आह! ऐसे धुलते हैं तार सोने के, | + | आह! ऐसे धुलते हैं तार सोने के, |
− | ऐसे मंजता है कुन्दन! | + | ऐसे मंजता है कुन्दन! |
− | ऐसे, मानो ओस के प्रभा-मण्डल से घिरा हुआ | + | ऐसे, मानो ओस के प्रभा-मण्डल से घिरा हुआ |
− | पार की धूप में चमक उठता है | + | पार की धूप में चमक उठता है |
− | सवेरे का फूल! | + | सवेरे का फूल! |
− | अरे ओ ढीठ पवन, मत कँपा इन वल्ली को | + | अरे ओ ढीठ पवन, मत कँपा इन वल्ली को |
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− | छोटी-छोटी लहरों को | + | छोटी-छोटी लहरों को |
− | मूंगे की-सी झाँई देते | + | मूंगे की-सी झाँई देते |
− | पाँवों की छाँव में मेरा मन बसने दे। | + | पाँवों की छाँव में मेरा मन बसने दे। |
− | (झील की कोखों से जहाँ झाँकते थे | + | (झील की कोखों से जहाँ झाँकते थे |
− | भाप के सोना-मढ़े छल्ले | + | भाप के सोना-मढ़े छल्ले |
− | वहाँ अब मंडराता है घना नीला कुहरा...) | + | वहाँ अब मंडराता है घना नीला कुहरा...) |
− | हिम-शिखर की तलहटी में | + | हिम-शिखर की तलहटी में |
− | निर्जन झुरमुट, | + | निर्जन झुरमुट, |
− | बीच में तिरछी किरणों-बुना आसन: | + | बीच में तिरछी किरणों-बुना आसन: |
− | आस-पास साँस रोके-सा झुटपुट। | + | आस-पास साँस रोके-सा झुटपुट। |
− | एक लय है ऊपर, पत्तियों के मर्मर की, | + | एक लय है ऊपर, पत्तियों के मर्मर की, |
− | एक लय भीतर, घनी, तीव्रतर साँसों की— | + | एक लय भीतर, घनी, तीव्रतर साँसों की— |
− | कैसा है यह संगीत जो पहले कभी सुना नहीं! | + | कैसा है यह संगीत जो पहले कभी सुना नहीं! |
− | सुनो! नहीं अभी नहीं—सुना तो | + | सुनो! नहीं अभी नहीं—सुना तो |
− | सब दूसरा हो जाएगा! | + | सब दूसरा हो जाएगा! |
− | तो दूसरा ही हो—वरंच दूसरा तो हो चुका!— | + | तो दूसरा ही हो—वरंच दूसरा तो हो चुका!— |
− | क्या अभी वही हो तुम? क्या वही हूँ—क्या हूँ भी मैं? | + | क्या अभी वही हो तुम? क्या वही हूँ—क्या हूँ भी मैं? |
− | यों—क्या जाने क्या हमसे बना, क्या बना नहीं; | + | यों—क्या जाने क्या हमसे बना, क्या बना नहीं; |
− | किरणों का आसन सिमट गया, | + | किरणों का आसन सिमट गया, |
− | सिहरन बची रही; | + | सिहरन बची रही; |
− | पीछे झुटपुटे ने झुरमुट से | + | पीछे झुटपुटे ने झुरमुट से |
− | न जाने क्या कही या नहीं कही! | + | न जाने क्या कही या नहीं कही! |
− | पर हिम-शिखर हमारे साथ आया | + | पर हिम-शिखर हमारे साथ आया |
− | बल्कि चांदनी का एक मौर लाया | + | बल्कि चांदनी का एक मौर लाया |
− | जो उसने तुम्हारे गले डाल दिया | + | जो उसने तुम्हारे गले डाल दिया |
− | और जिसे मैं ताका किया, ताका किया | + | और जिसे मैं ताका किया, ताका किया |
− | भोर तक: | + | भोर तक: |
− | जिसे छूने बढ़ी मेरी उंगलियाँ तो सकुचीं, | + | जिसे छूने बढ़ी मेरी उंगलियाँ तो सकुचीं, |
− | फिर रोमावली के साथ बह आईं | + | फिर रोमावली के साथ बह आईं |
− | भुजा से तुम्हारी उंगलियों के छोर तक— | + | भुजा से तुम्हारी उंगलियों के छोर तक— |
− | फिर गुंथे हाथ | + | फिर गुंथे हाथ |
− | और गूंजा संगीत वही | + | और गूंजा संगीत वही |
− | फिर एक बार— | + | फिर एक बार— |
− | दुर्निवार... | + | दुर्निवार... |
− | (काली पड़ गईं क़तारें: लाल हो कर सूख भी चलीं बेलें। | + | (काली पड़ गईं क़तारें: लाल हो कर सूख भी चलीं बेलें। |
− | उतर चुके अंगूर—गुच्छे के गुच्छे— | + | उतर चुके अंगूर—गुच्छे के गुच्छे— |
− | हो चुके पेराई के मेले।) | + | हो चुके पेराई के मेले।) |
− | आग के कितने रूप | + | आग के कितने रूप |
− | बसे हैं मेरे मन में! | + | बसे हैं मेरे मन में! |
− | एक आग जो पकाती है | + | एक आग जो पकाती है |
− | एक जो मीठा घाम है, | + | एक जो मीठा घाम है, |
− | एक जो आँखों में सुलगती है | + | एक जो आँखों में सुलगती है |
− | एक जो झुलसाती है | + | एक जो झुलसाती है |
− | एक जो साक्षी है | + | एक जो साक्षी है |
− | एक जो सहलाती है, अदृश्य बल देती है, जो न हो तो हम | + | एक जो सहलाती है, अदृश्य बल देती है, जो न हो तो हम |
− | :::::रीते हैं, | + | :::::रीते हैं, |
− | एक जो उलटे धौंकनी को चलाती है, जिसे हम हर साँस | + | एक जो उलटे धौंकनी को चलाती है, जिसे हम हर साँस |
− | ::::के साथ पीते हैं, | + | ::::के साथ पीते हैं, |
− | एक जिसकी सोंधी खुदबुद बताती है | + | एक जिसकी सोंधी खुदबुद बताती है |
− | कि सपने जहाँ हैं, हैं, | + | कि सपने जहाँ हैं, हैं, |
− | पर एक धरती है जिस पर हम टिके हैं, चलते हैं, जीते हैं... | + | पर एक धरती है जिस पर हम टिके हैं, चलते हैं, जीते हैं... |
− | आग के कितने-कितने रूप! | + | आग के कितने-कितने रूप! |
− | ये सभी हमने जलाई थीं | + | ये सभी हमने जलाई थीं |
− | साथ-साथ, | + | साथ-साथ, |
− | सब में हम जले थे, | + | सब में हम जले थे, |
− | साथ-साथ, | + | साथ-साथ, |
− | सोचा था कि ऐसा होगा, | + | सोचा था कि ऐसा होगा, |
− | चाहा था कि ऐसा हो, | + | चाहा था कि ऐसा हो, |
− | —पर क्या चाहा था? | + | —पर क्या चाहा था? |
− | कि एक मीठी सिगड़ी हो हमारे हाथों में | + | कि एक मीठी सिगड़ी हो हमारे हाथों में |
− | या कि एक जलता टीका हो हमारे माथों पर? | + | या कि एक जलता टीका हो हमारे माथों पर? |
− | (झील की कोखों में जमता है घना नीला कुहरा | + | (झील की कोखों में जमता है घना नीला कुहरा |
− | मनहूस, बाँझ सन्नाटे को करता और गहरा...) | + | मनहूस, बाँझ सन्नाटे को करता और गहरा...) |
− | हमारे मिले हाथों के सम्पुट में | + | हमारे मिले हाथों के सम्पुट में |
− | हम ने देखा जीवन को पनपते, | + | हम ने देखा जीवन को पनपते, |
− | कन्धे से कन्धा जोड़, हाथ गहे | + | कन्धे से कन्धा जोड़, हाथ गहे |
− | हमने सहा | + | हमने सहा |
− | ओठों पर अन्तिम साँसों को कँपते— | + | ओठों पर अन्तिम साँसों को कँपते— |
− | आग का साक्ष्य? कितने साक्ष्य! | + | आग का साक्ष्य? कितने साक्ष्य! |
− | हमारा निजी अनुभव का साक्ष्य | + | हमारा निजी अनुभव का साक्ष्य |
− | जीवन-मरण का! | + | जीवन-मरण का! |
− | (उतर चुके अंगूर—गुच्छे के गुच्छे, | + | (उतर चुके अंगूर—गुच्छे के गुच्छे, |
− | तोड़ लिए गए हैं सब सेब, सूनी हैं डालें... | + | तोड़ लिए गए हैं सब सेब, सूनी हैं डालें... |
− | हो चुके पहली पेराई के मेले | + | हो चुके पहली पेराई के मेले |
− | लाल होकर काली भी पड़ गई बग़ीचों की क़तारें: | + | लाल होकर काली भी पड़ गई बग़ीचों की क़तारें: |
− | उतर चुके अंगूर: सूख गईं बेलें।) | + | उतर चुके अंगूर: सूख गईं बेलें।) |
− | काली पड़ गई आग। धुंधली पड़ गई साख | + | काली पड़ गई आग। धुंधली पड़ गई साख |
− | उस की और हमारी! | + | उस की और हमारी! |
− | थक जाती है याद भी ढोते, उड़ाते, परत पर परत राख | + | थक जाती है याद भी ढोते, उड़ाते, परत पर परत राख |
− | जब तक कि मिले कहीं सुलगती चिनगारी! | + | जब तक कि मिले कहीं सुलगती चिनगारी! |
− | झील की कोख से उमड़ कर फैल जाता है कुहरा | + | झील की कोख से उमड़ कर फैल जाता है कुहरा |
− | मनहूस, बाँझ सन्नाटा होता जाता है और, और गहरा! | + | मनहूस, बाँझ सन्नाटा होता जाता है और, और गहरा! |
− | सूख चुकीं घासें, नुच चुके पेड़-पात, | + | सूख चुकीं घासें, नुच चुके पेड़-पात, |
− | नंगी हो चट्टानें भी धुन्ध में दुबक गईं। | + | नंगी हो चट्टानें भी धुन्ध में दुबक गईं। |
− | और अब कहाँ है प्रकाश, या आकाश? | + | और अब कहाँ है प्रकाश, या आकाश? |
− | वही मनहूसियत उस पर भी पुत गई। | + | वही मनहूसियत उस पर भी पुत गई। |
− | रात, रात, रात, रात, | + | रात, रात, रात, रात, |
− | ठिठुरन—संवत्सर के मरने की कालिमा | + | ठिठुरन—संवत्सर के मरने की कालिमा |
− | सब कुछ ढँक गई... < | + | सब कुछ ढँक गई... |
+ | </poem> |
01:06, 1 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण
भर ली गई हैं पुआलें खलिहानों में:
तोड़ लिए गए हैं सब सेब: सूनी हैं डालें।
उतर चुके हैं अंगूर—गुच्छे के गुच्छे,
हो चुके पहली पेराई के मेले:
लाल हो कर काली भी पड़ गईं बग़ीचों में क़तारें: सूख
चली बेलें।
झील की कोखों से जहाँ झाँकते थे
धूप से सोना-मढ़े भाप के छल्ले
वहाँ अब मंडराता है घना नीला कुहरा
मनहूस, बाँझ सन्नाटे को करता और गहरा।...
अनदेखे लाद ले गया है अपनी झोली में
काल का गली छानता हुआ कबाड़ी
न जाने कितने दिन, कितने क्षण,
कितनी अन्तहीन अनकही और अधूरी कही बातें,
कितने संकेत, कितने स्पर्श-हर्ष,
उमंगें—अकुलाहटें;
सिहरनों में घुलती और साँसों से नापी हुई रातें
ठिठकनें, आहटें;
कितने कल्पना की आग में रूपायित हुए सपने,
कितना माल, जो पड़ा था तो मानो रद्दी था,
पर अब उस के हाथ चला गया तो सन्देह होता है
कहीं हम ठगे तो नहीं गए?
क्योंकि नहीं तो कहाँ है वह प्यार, कहाँ हो तुम, ओ मेरे
अपने,
कहाँ है वे हम, जिनका निरन्तर अपने को भूलना ही
जीना और होना था—
जहाँ अपने को राख-सा फूँक कर उड़ाते जाना
दोनों को पाना था?
(भर ली गई हैं पुआलें
खलिहानों में:
तोड़ लिए गए सब सेब: सूनी हैं डालें:)
रूपायित सपने तो गए भी (आख़िर सपने थे,
हम गए जाग), पर
क्या हुई वह रूपकल्पी आग?
(उतर चुके अंगूर—गुच्छे के गुच्छे,
हो चुके पेराई के मेले।
काली पड़ गईं क़तारें: लाल होकर सूख भी चली बेलें।)
रूपकल्पी आग!
(तोड़ लिए गए हैं सब सेब: सूनी हैं डालें...)
आधी रात राख में कभी सुलग जाती हैं केवल सपने की
परछाइयाँ।
(खलिहानों में भर ली गई हैं पुआलें...)
पड़ाव: थके पैर: क्या भूख? नहीं। शीत? नहीं।
तो कुछ तो कहो? कुछ नहीं, आँखों की दीठ मुझे घेरे रहे,
कुछ और नहीं चाहिए—उसी में गरमाई है,
तृप्ति है, सहलाहट है, उनींदा है जो नींद से भी मीठा है...
दूर-दूर, छूईमुई-से, पर कितने तुम मेरे रहे...
भोर: चोरी से नहीं, अनजाने, अचानक
मैंने तुम्हें झरने पर देखा।
आह! ऐसे धुलते हैं तार सोने के,
ऐसे मंजता है कुन्दन!
ऐसे, मानो ओस के प्रभा-मण्डल से घिरा हुआ
पार की धूप में चमक उठता है
सवेरे का फूल!
अरे ओ ढीठ पवन, मत कँपा इन वल्ली को
नई धूप में विकसने दे—
छोटी-छोटी लहरों को
मूंगे की-सी झाँई देते
पाँवों की छाँव में मेरा मन बसने दे।
(झील की कोखों से जहाँ झाँकते थे
भाप के सोना-मढ़े छल्ले
वहाँ अब मंडराता है घना नीला कुहरा...)
हिम-शिखर की तलहटी में
निर्जन झुरमुट,
बीच में तिरछी किरणों-बुना आसन:
आस-पास साँस रोके-सा झुटपुट।
एक लय है ऊपर, पत्तियों के मर्मर की,
एक लय भीतर, घनी, तीव्रतर साँसों की—
कैसा है यह संगीत जो पहले कभी सुना नहीं!
सुनो! नहीं अभी नहीं—सुना तो
सब दूसरा हो जाएगा!
तो दूसरा ही हो—वरंच दूसरा तो हो चुका!—
क्या अभी वही हो तुम? क्या वही हूँ—क्या हूँ भी मैं?
यों—क्या जाने क्या हमसे बना, क्या बना नहीं;
किरणों का आसन सिमट गया,
सिहरन बची रही;
पीछे झुटपुटे ने झुरमुट से
न जाने क्या कही या नहीं कही!
पर हिम-शिखर हमारे साथ आया
बल्कि चांदनी का एक मौर लाया
जो उसने तुम्हारे गले डाल दिया
और जिसे मैं ताका किया, ताका किया
भोर तक:
जिसे छूने बढ़ी मेरी उंगलियाँ तो सकुचीं,
फिर रोमावली के साथ बह आईं
भुजा से तुम्हारी उंगलियों के छोर तक—
फिर गुंथे हाथ
और गूंजा संगीत वही
फिर एक बार—
दुर्निवार...
(काली पड़ गईं क़तारें: लाल हो कर सूख भी चलीं बेलें।
उतर चुके अंगूर—गुच्छे के गुच्छे—
हो चुके पेराई के मेले।)
आग के कितने रूप
बसे हैं मेरे मन में!
एक आग जो पकाती है
एक जो मीठा घाम है,
एक जो आँखों में सुलगती है
एक जो झुलसाती है
एक जो साक्षी है
एक जो सहलाती है, अदृश्य बल देती है, जो न हो तो हम
रीते हैं,
एक जो उलटे धौंकनी को चलाती है, जिसे हम हर साँस
के साथ पीते हैं,
एक जिसकी सोंधी खुदबुद बताती है
कि सपने जहाँ हैं, हैं,
पर एक धरती है जिस पर हम टिके हैं, चलते हैं, जीते हैं...
आग के कितने-कितने रूप!
ये सभी हमने जलाई थीं
साथ-साथ,
सब में हम जले थे,
साथ-साथ,
सोचा था कि ऐसा होगा,
चाहा था कि ऐसा हो,
—पर क्या चाहा था?
कि एक मीठी सिगड़ी हो हमारे हाथों में
या कि एक जलता टीका हो हमारे माथों पर?
(झील की कोखों में जमता है घना नीला कुहरा
मनहूस, बाँझ सन्नाटे को करता और गहरा...)
हमारे मिले हाथों के सम्पुट में
हम ने देखा जीवन को पनपते,
कन्धे से कन्धा जोड़, हाथ गहे
हमने सहा
ओठों पर अन्तिम साँसों को कँपते—
आग का साक्ष्य? कितने साक्ष्य!
हमारा निजी अनुभव का साक्ष्य
जीवन-मरण का!
(उतर चुके अंगूर—गुच्छे के गुच्छे,
तोड़ लिए गए हैं सब सेब, सूनी हैं डालें...
हो चुके पहली पेराई के मेले
लाल होकर काली भी पड़ गई बग़ीचों की क़तारें:
उतर चुके अंगूर: सूख गईं बेलें।)
काली पड़ गई आग। धुंधली पड़ गई साख
उस की और हमारी!
थक जाती है याद भी ढोते, उड़ाते, परत पर परत राख
जब तक कि मिले कहीं सुलगती चिनगारी!
झील की कोख से उमड़ कर फैल जाता है कुहरा
मनहूस, बाँझ सन्नाटा होता जाता है और, और गहरा!
सूख चुकीं घासें, नुच चुके पेड़-पात,
नंगी हो चट्टानें भी धुन्ध में दुबक गईं।
और अब कहाँ है प्रकाश, या आकाश?
वही मनहूसियत उस पर भी पुत गई।
रात, रात, रात, रात,
ठिठुरन—संवत्सर के मरने की कालिमा
सब कुछ ढँक गई...