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"हँस रहा है उधर / केदारनाथ अग्रवाल" के अवतरणों में अंतर

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हँस रहा है उधर
 
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धूप में खड़ा पूरा पहाड़
 
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खोल कर मोटे बड़े होंठ ।
 
खोल कर मोटे बड़े होंठ ।
 
 
::और चट्टानी जबड़े ।
 
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रो रहा है इधर
 
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शोक में पड़ा जन-समुदाय
 
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काट कर कामकाजी हाथ
 
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::तोड़ कर छाती तगड़ी ।
  
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'''रचनाकाल: १०-०९-१९६२'''
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13:43, 9 जनवरी 2011 के समय का अवतरण

हँस रहा है उधर
धूप में खड़ा पूरा पहाड़
खोल कर मोटे बड़े होंठ ।
और चट्टानी जबड़े ।

रो रहा है इधर
शोक में पड़ा जन-समुदाय
काट कर कामकाजी हाथ
तोड़ कर छाती तगड़ी ।

रचनाकाल: १०-०९-१९६२