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22:09, 12 जुलाई 2016 के समय का अवतरण
नवजात कातर देश!
ओ कविता, ओ दूध-भात,
लौट आओ तुम।
(बीते युग के)
सुन्दर-सुभग-सुकान्त कवियों की तरह
मानव-वसति में तुम
जीवित रहो और
बार-बार पुकारो अच्छे दिनों को
वापस।
तरुणी माँ के स्तनों में दूध नहीं है,
अतः प्रियतम गया है
दूर वन में
शिशु के दूध की तलाश में, और
सेमल के फूलों से ओस चुनने।
सूर्य में उषा का आलोक नहीं है,
अतः धनुर्धर चले गए हैं
[अन्धेरे में युद्ध नहीं होगा]
रह गया है अकाल,
लकड़हारे-सा,
लकड़ियाँ काटता है, फल अलग करता है
और खाता है।
नवजात है कातर देश, इसलिए
हे कविता, हे दूध-भात,
लौट आओ,
उग आए सूरज
शिशिर की धुली भोर का,
मातृस्तन पुन: होवे शिशु का आश्रय!
पितृॠण चुकाना है मुझे अभी,
प्रार्थना में नतजानु,
फलवती वृक्ष-सरणी की श्याम शोभा
के भीतर, दिन भर
तुम्हारी गोद में, बालक की तरह,
अच्छे दिनों की मीठी बयार लेकर
घर लौटूँ।
कविता!
हमारे घरों के करघे,
साइकिलों पर सवार हमारे लोग,
तालाब का हरा, काँपता जल,
आँवाहल्दी के वन,
सब देखे होंगे तुमने,
[तुम्हें क्या नहीं मालूम!]
क्यों न निकाल दिया
हमारी आत्माहुति का मुहूर्त?
क्यों न देखा
हमारी छीजती आँखों के कोनों में
सब कुछ खोने का दर्द?
नहीं सुनी प्यार की, कमज़ोर सही, पर
कोशिश
बोलने की?
तुम्ही अच्छी हो, ओ दुराशा,
ओ नील आशा!
अबुल हसन की कविता : ’उदित दुःखेर देश’ का अनुवाद
मूल बांग्ला से अनुवाद : शिव किशोर तिवारी