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"रत्नदीप / श्रीकांत वर्मा" के अवतरणों में अंतर

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गीला एकान्त देख<br>
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मुझसे कुछ बोली थी।<br>
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गीत सुगबुगाया था
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मैंने इस नगरी को, अपनी अनुभूति के
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गहन नीले गह्वर से
सब दिशाओं के कानों में चिल्ला रहा है।<br><br>
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अब भी इस नगरी के पाँवों में  
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एक दिग्भ्रमित यात्रा और
भटर रहा मौन देख<br>
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गीत सुगबुगाया था<br>
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और अनरची रचना कुछ बोली थी।<br>
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पंखकटी चिड़िया-सी मुझ से कुछ बोली थी ।
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मैंने इस अंधकार के भिक्षुक हाथों को
गहन नीले गह्वर से<br>
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रत्नदीप दिया था; कहाँ है ?
बादल का एक गान दिया था; कहाँ है?<br>
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अब भी इस अंधकार में कितनी यात्राएँ
अब भी इस नगरी के पाँवों में <br>
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टूटी हुई मोती की माला-सी बिखरी हैं ।
पायल की जगह वही <br>
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एक शाम,<br>
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रत्नदीप दिया था; कहाँ है?<br>
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अब भी इस अंधकार में कितनी यात्राएँ<br>
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मैंने जो रत्नदीप दिया था, कहाँ है?<br>
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18:23, 22 नवम्बर 2010 के समय का अवतरण

इस नीले सिंधु तीर, एक शाम
गीला एकान्त देख
आँख डबडबाई थी
और व्यथा की नन्ही जल चिड़िया
मुझसे कुछ बोली थी ।
मैंने इस सिंधु को—
आश्वासन का एक पाल दिया था, कहाँ है ?
अब भी यह सिंधु
सब दिशाओं के कानों में चिल्ला रहा है ।

किन्नर, गंधर्वों की गान भरी नगरी में
एक दिन,
टूटा एकतारा ले
भटर रहा मौन देख
गीत सुगबुगाया था
और अनरची रचना कुछ बोली थी ।
मैंने इस नगरी को, अपनी अनुभूति के
गहन नीले गह्वर से
बादल का एक गान दिया था; कहाँ है ?
अब भी इस नगरी के पाँवों में
पायल की जगह वही
सन्नाटा लिपटा है ।

अंधकार के क्षितिजों, टीलों, खंडहरों में
एक शाम,
एक दिग्भ्रमित यात्रा और
रुँधी दिशा देख,
चरण डगमगाए थे और दिशा
पंखकटी चिड़िया-सी मुझ से कुछ बोली थी ।
मैंने इस अंधकार के भिक्षुक हाथों को
रत्नदीप दिया था; कहाँ है ?
अब भी इस अंधकार में कितनी यात्राएँ
टूटी हुई मोती की माला-सी बिखरी हैं ।

मैंने जो रत्नदीप दिया था, कहाँ है ?