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कभी कभी लगाता हूँ
 
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पर खुद को नहीं
 
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औरों को देखने के लिए लगाता हूँ चश्मा,
 
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कि देखूँ मैं कैसा लगता हूँ उनकी आँखों में
 
कि देखूँ मैं कैसा लगता हूँ उनकी आँखों में
 
 
उनकी चुप्पी में,
 
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कि याद आ जाए तो उन्हें आत्मलीन क्षणों में मेरी भी
 
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आइने में अपने को देखते,
 
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मुस्कराहट के छोर पर.
 
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'''रचनाकाल: 2.12.2005
 
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2.12.2005
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17:51, 26 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण

कभी कभी लगाता हूँ
पर खुद को नहीं
औरों को देखने के लिए लगाता हूँ चश्मा,
कि देखूँ मैं कैसा लगता हूँ उनकी आँखों में
उनकी चुप्पी में,
कि याद आ जाए तो उन्हें आत्मलीन क्षणों में मेरी भी
आइने में अपने को देखते,
मुस्कराहट के छोर पर.

रचनाकाल: 2.12.2005