"रघुवीर अग्रवाल ‘पथिक’ / परिचय" के अवतरणों में अंतर
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भिलाई स्टील प्लांट के शिक्षा विभाग से सेवा निवृत्त हुये। अनेक राष्ट्रीय व राज्य स्तरीय पत्रों में लेख लिखे। | भिलाई स्टील प्लांट के शिक्षा विभाग से सेवा निवृत्त हुये। अनेक राष्ट्रीय व राज्य स्तरीय पत्रों में लेख लिखे। | ||
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+ | दलित, दानेश्वर और पथिक की तिकड़ी ने हिन्दी और छत्तीसगढ़ी में समान अधिकार से कविताएं कीं। हिन्दी को इन्होंने राष्ट्रवादी भाव से लिया तो इनका क्षेत्रीय प्रेम छत्तीसगढ़ी में मुखरित हुआ। हिन्दी में देशप्रेम के गीत लिखे गए तो छत्तीसगढी में हास्य और श्रृंगार की रचनाएं लिखी गईं। इन तीनों ही कवियों ने देशप्रेम के गीत और हास्य-व्यंग्य की कविताएं खूब लिखीं और इन तीनों ने ही अपनी रचनाओं को कवि सम्मेलन के मंचों पर भी खूब प्रस्तुत किया। पिताजी अर्जुनसिंह साव अपने समय के यशस्वी प्राचार्य और शिक्षा अधिकारी रहे। वे लेखक नहीं थे पर बडे विचारवान और सुरुचि सम्पन्न इन्सान थे। वे एक श्रेष्ठ शिक्षाविद, संस्कृति कर्मी और कुशल कार्यक्रम संयोजक थे। उन्होंने भी अपने कार्यकाल में पाटन स्कूल के ‘सोशल गेदरिंग’ में इन तीनों कवियों को एक बार एक साथ प्रस्तुत किया था। | ||
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+ | कोदूराम दलित का एक छत्तीसगढ़ी गीत है ‘जय जय गनेश महराजा, मुसुवा में चढ़के आजा’ इसे छात्रगण गणेशोत्सव में गाया करते थे। कुछ इस शैली की छत्तीसगढ़ी कविता पथिकजी की तुलसीदास पर है - | ||
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+ | ‘जय जय तुलसी महराज, अरज ला करहू पूरा पूरा, | ||
+ | मैं तोर देश भारत के छत्तीसगढ़ के बैहा टूरा’। | ||
+ | ‘मैं ढलंग ढलंग के पॉंव परथौं, सुनहू मोर गोंसाई’ | ||
+ | ‘मैं लिखथौं कविता सांय सांय अउ सुग्घर बढ़िया बढ़िया, | ||
+ | तैं भरे समुद्दर हिन्दी के अउ मैं तो भर देंव तरिया।’ | ||
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+ | पथिकजी के इन गीतों को स्कूल के बच्चे तुलसी जयन्ती में गाया करते थे। | ||
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+ | पथिकजी का संग्रह ‘जलें रक्त से दीप’ संभवतः 1970 के आसपास प्रकाशित हुआ था। इस पुस्तक का शानदार ‘गेटअप’ था। तब देश की आजादी को मात्र बीस-बाइस बरस हुए थे और लोगों के भीतर देशभक्ति का जज़्बा भरा हुआ था। उस समय के ज्यादातर कवि राष्ट्रवादी हुआ करते थे और कई लेखक क्रांतिकारी रचनाएं लिख रहे थे। इन सबके आदर्श और प्रेरणाश्रोत थे - राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर, माखनलाल चतुर्वेदी और सोहनलाल द्विवेदी। उस समय देशप्रेम का भाव जगाकर हृदय को द्रवित करने वाली और रुला देने वाली फिल्में भी खूब बना करती थीं। नेहरु, शास्त्री और इन्दिरा जैसे तेजस्वी व्यक्तित्व देश का नेतृत्व सम्हाले हुए थे। तब के युवा कवि रघुवीर अग्रवाल पथिक थे, और इन सारी स्थितियों ओर उस समय के नेतृत्वकर्ताओं का बड़ा प्रभाव पथिक जी और उनकी पीढ़ी पर पड़ रहा था। यदि ‘जलें रक्त से दीप’ के गीतों को देखा जाए तो उनमें ये सारे प्रभाव साफ दीख रहे थे। ‘जलें रक्त से दीप’ की रचनाएं बड़ी गेय रचनाएं थीं। उसके पहले ही गीत ‘बदलती जा रही दुनियां सम्हलकर पग बढ़ाना है’ को तो मधुर राग में गाया जा सकता था। यह फिल्म ‘हकीकत’ के गीत ‘वतन पर जो फिदा होगा अमर वो नौजवॉं होगा’ की पैरौडी जैसी थी। इस संग्रह का शीर्षक गीत था ‘जलें रक्त से दीप - जल उठी बलिदानों की आरती, उठो जवानों आज देश की धरती तुम्हें पुकारती।’ | ||
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+ | पथिकजी, जैसा कि ज्ञात है कि हिंदी और छत्तीसगढ़ी में समान अधिकार से लिखते हैं। वे आज भी सक्रिय हैं और अपनी पीढ़ी के उन कवियों की तरह नहीं हैं जो किसी कालखण्ड में कैद हो गए हों और आज चूक गए हों। वे आज भी रचना रत हैं इसलिए आज का परिवेश, आज की स्थितियॉं भी उनकी कविताओं में दिख रही हैं। अपना छत्तीसगढ़ राज पा लेने के बाद की स्थितियॉं उनकी इन पंक्तियों में हैः | ||
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+ | हमर देस, अउ हमर गॉंव मा, होगे अइसन लाचारी | ||
+ | हमरे भूँइयां, हमरे भाखा, अउ दूसर के हकदारी | ||
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+ | लोक चेतना से संपृक्त कवि यथार्थ की विषमाताओं को देखकर किस तरह उद्विग्न हो उठता है। आज की स्थितियॉं कैसे उन्हें झकझोरती हैं, ये पंक्तियॉं उनका प्रमाण है। प्रो.त्रिभुवन पाण्डेय कहते हैं कि ‘छत्तीसगढ़ी के विकास के साथ राष्ट्रभाषा के रुप में हिंदी को प्रतिष्ठित करने की आकांक्षा उन सभी लोगों में है जो भाषा के विकास को लोक अभिव्यक्ति और लोक गरिमा के रुप में देखते हैं। इस संदर्भ में पथिक जी की यह काव्य अभिव्यक्ति महत्वपूर्ण हैः | ||
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+ | अंगरेजी तो सीखौ वोला राजमुकुट पहिरावौ झन | ||
+ | हमर राष्ट्रभाषा हिंदी ये, येला कभू भुलाऔ झन | ||
+ | अपन देस के भासा मन के महिमा ला पहिचानो तो | ||
+ | कभू बिदेसी खपरा मा घर के छानी ला छावौ झन | ||
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+ | रघुवीर अग्रवाल ‘पथिक’ के कितने ही गीतों को कई कार्यक्रमों में लोग गाया गुनगुनाया करते थे। ऐसे पथिकजी को उनकी सृजन साधना के लिए ‘समाजरत्न’ पतिराम साव सम्मान से एक बार अलंकृत किया था मुख्य अतिथि रमेश नैय्यर के कर कमलों से। | ||
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+ | बीसवी शताब्दी के सातवें दशक में दुर्ग में पतिराम साव पचरी पारा स्थित अपने निवास से ‘साहू सन्देश’ नाम से एक सामाजिक पत्रिका निकालते थे। यह पत्रिका सन् 1960 से 1968 तक नियमित रुप से हर माह निकला करती थी। लगभग पचास पृष्ठों की यह पत्रिका मात्र एक जातिगत बुलेटिन नहीं थी। सावजी ने इसे एक व्यापक साहित्यिक और वैचारिक पत्रिका के रुप में आगे बढ़ाया था। इस पत्रिका में न केवल साहू समाज के स्वजन छपा करते थे बल्कि तब के सर्व समाज के साहित्य प्रेमीजन इस पत्रिका में प्रकाशित हुआ करते थे। कोदूराम दलित, दानेश्वर शर्मा और रघुवीर अग्रवाल ‘पथिक’ की यह त्रयी तब इसी पत्रिका से मुखरित हुआ करती थी। | ||
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23:05, 24 अक्टूबर 2016 के समय का अवतरण
भिलाई स्टील प्लांट के शिक्षा विभाग से सेवा निवृत्त हुये। अनेक राष्ट्रीय व राज्य स्तरीय पत्रों में लेख लिखे।
दलित, दानेश्वर और पथिक की तिकड़ी ने हिन्दी और छत्तीसगढ़ी में समान अधिकार से कविताएं कीं। हिन्दी को इन्होंने राष्ट्रवादी भाव से लिया तो इनका क्षेत्रीय प्रेम छत्तीसगढ़ी में मुखरित हुआ। हिन्दी में देशप्रेम के गीत लिखे गए तो छत्तीसगढी में हास्य और श्रृंगार की रचनाएं लिखी गईं। इन तीनों ही कवियों ने देशप्रेम के गीत और हास्य-व्यंग्य की कविताएं खूब लिखीं और इन तीनों ने ही अपनी रचनाओं को कवि सम्मेलन के मंचों पर भी खूब प्रस्तुत किया। पिताजी अर्जुनसिंह साव अपने समय के यशस्वी प्राचार्य और शिक्षा अधिकारी रहे। वे लेखक नहीं थे पर बडे विचारवान और सुरुचि सम्पन्न इन्सान थे। वे एक श्रेष्ठ शिक्षाविद, संस्कृति कर्मी और कुशल कार्यक्रम संयोजक थे। उन्होंने भी अपने कार्यकाल में पाटन स्कूल के ‘सोशल गेदरिंग’ में इन तीनों कवियों को एक बार एक साथ प्रस्तुत किया था।
कोदूराम दलित का एक छत्तीसगढ़ी गीत है ‘जय जय गनेश महराजा, मुसुवा में चढ़के आजा’ इसे छात्रगण गणेशोत्सव में गाया करते थे। कुछ इस शैली की छत्तीसगढ़ी कविता पथिकजी की तुलसीदास पर है -
‘जय जय तुलसी महराज, अरज ला करहू पूरा पूरा,
मैं तोर देश भारत के छत्तीसगढ़ के बैहा टूरा’।
‘मैं ढलंग ढलंग के पॉंव परथौं, सुनहू मोर गोंसाई’
‘मैं लिखथौं कविता सांय सांय अउ सुग्घर बढ़िया बढ़िया,
तैं भरे समुद्दर हिन्दी के अउ मैं तो भर देंव तरिया।’
पथिकजी के इन गीतों को स्कूल के बच्चे तुलसी जयन्ती में गाया करते थे।
पथिकजी का संग्रह ‘जलें रक्त से दीप’ संभवतः 1970 के आसपास प्रकाशित हुआ था। इस पुस्तक का शानदार ‘गेटअप’ था। तब देश की आजादी को मात्र बीस-बाइस बरस हुए थे और लोगों के भीतर देशभक्ति का जज़्बा भरा हुआ था। उस समय के ज्यादातर कवि राष्ट्रवादी हुआ करते थे और कई लेखक क्रांतिकारी रचनाएं लिख रहे थे। इन सबके आदर्श और प्रेरणाश्रोत थे - राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर, माखनलाल चतुर्वेदी और सोहनलाल द्विवेदी। उस समय देशप्रेम का भाव जगाकर हृदय को द्रवित करने वाली और रुला देने वाली फिल्में भी खूब बना करती थीं। नेहरु, शास्त्री और इन्दिरा जैसे तेजस्वी व्यक्तित्व देश का नेतृत्व सम्हाले हुए थे। तब के युवा कवि रघुवीर अग्रवाल पथिक थे, और इन सारी स्थितियों ओर उस समय के नेतृत्वकर्ताओं का बड़ा प्रभाव पथिक जी और उनकी पीढ़ी पर पड़ रहा था। यदि ‘जलें रक्त से दीप’ के गीतों को देखा जाए तो उनमें ये सारे प्रभाव साफ दीख रहे थे। ‘जलें रक्त से दीप’ की रचनाएं बड़ी गेय रचनाएं थीं। उसके पहले ही गीत ‘बदलती जा रही दुनियां सम्हलकर पग बढ़ाना है’ को तो मधुर राग में गाया जा सकता था। यह फिल्म ‘हकीकत’ के गीत ‘वतन पर जो फिदा होगा अमर वो नौजवॉं होगा’ की पैरौडी जैसी थी। इस संग्रह का शीर्षक गीत था ‘जलें रक्त से दीप - जल उठी बलिदानों की आरती, उठो जवानों आज देश की धरती तुम्हें पुकारती।’
पथिकजी, जैसा कि ज्ञात है कि हिंदी और छत्तीसगढ़ी में समान अधिकार से लिखते हैं। वे आज भी सक्रिय हैं और अपनी पीढ़ी के उन कवियों की तरह नहीं हैं जो किसी कालखण्ड में कैद हो गए हों और आज चूक गए हों। वे आज भी रचना रत हैं इसलिए आज का परिवेश, आज की स्थितियॉं भी उनकी कविताओं में दिख रही हैं। अपना छत्तीसगढ़ राज पा लेने के बाद की स्थितियॉं उनकी इन पंक्तियों में हैः
हमर देस, अउ हमर गॉंव मा, होगे अइसन लाचारी
हमरे भूँइयां, हमरे भाखा, अउ दूसर के हकदारी
लोक चेतना से संपृक्त कवि यथार्थ की विषमाताओं को देखकर किस तरह उद्विग्न हो उठता है। आज की स्थितियॉं कैसे उन्हें झकझोरती हैं, ये पंक्तियॉं उनका प्रमाण है। प्रो.त्रिभुवन पाण्डेय कहते हैं कि ‘छत्तीसगढ़ी के विकास के साथ राष्ट्रभाषा के रुप में हिंदी को प्रतिष्ठित करने की आकांक्षा उन सभी लोगों में है जो भाषा के विकास को लोक अभिव्यक्ति और लोक गरिमा के रुप में देखते हैं। इस संदर्भ में पथिक जी की यह काव्य अभिव्यक्ति महत्वपूर्ण हैः
अंगरेजी तो सीखौ वोला राजमुकुट पहिरावौ झन
हमर राष्ट्रभाषा हिंदी ये, येला कभू भुलाऔ झन
अपन देस के भासा मन के महिमा ला पहिचानो तो
कभू बिदेसी खपरा मा घर के छानी ला छावौ झन
रघुवीर अग्रवाल ‘पथिक’ के कितने ही गीतों को कई कार्यक्रमों में लोग गाया गुनगुनाया करते थे। ऐसे पथिकजी को उनकी सृजन साधना के लिए ‘समाजरत्न’ पतिराम साव सम्मान से एक बार अलंकृत किया था मुख्य अतिथि रमेश नैय्यर के कर कमलों से।
बीसवी शताब्दी के सातवें दशक में दुर्ग में पतिराम साव पचरी पारा स्थित अपने निवास से ‘साहू सन्देश’ नाम से एक सामाजिक पत्रिका निकालते थे। यह पत्रिका सन् 1960 से 1968 तक नियमित रुप से हर माह निकला करती थी। लगभग पचास पृष्ठों की यह पत्रिका मात्र एक जातिगत बुलेटिन नहीं थी। सावजी ने इसे एक व्यापक साहित्यिक और वैचारिक पत्रिका के रुप में आगे बढ़ाया था। इस पत्रिका में न केवल साहू समाज के स्वजन छपा करते थे बल्कि तब के सर्व समाज के साहित्य प्रेमीजन इस पत्रिका में प्रकाशित हुआ करते थे। कोदूराम दलित, दानेश्वर शर्मा और रघुवीर अग्रवाल ‘पथिक’ की यह त्रयी तब इसी पत्रिका से मुखरित हुआ करती थी।