"ओरे ओ आसमान / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी" के अवतरणों में अंतर
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी |अनुव...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 56: | पंक्ति 56: | ||
हो समान | हो समान | ||
हो समान। | हो समान। | ||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
</poem> | </poem> |
18:25, 6 मार्च 2017 के समय का अवतरण
जब-जब देखता
तारों भरा आकाश
लगता है मुझे यह
कर रहा अट्टहास
दैत्य-आसमान है।
फाड़े मुँह पूरा वह
ताक रहा धरती
समूची निगल जाने को
रात के सूने सन्नाटे में।
संभवतः सोचता कि
उसकी इस दैत्याकार आकृति से
त्रस्त, भयग्रस्त भू
चुप है, बेहोश है।
लेकिन है उसको यह
ज्ञात नहीं
ऐसी कुछ बात नहीं;
दिन-भर के अथक परिश्रम से
विथकित हो
गहरी निद्रा में वह सोई है
मात्र चाँदनी की एक
झीनी-सी चादर से ढाँक तन।
और जब करवट वह
बदलेगी, जागेगी
खोल सिर्फ एक आँख
देखेगी
एक-एक दाँत, डाढ़ व्योम की
वह उखाड़ फेंकेगी;
अट्टहास उसका यह
तत्क्षण विलाएगा
गजरों से ढँका तन
राख हो जायेगा।
इसलिए
ओरे ओ, आकाश!
छोड़ कर अट्टहास
छोड़ कर खूँख्वार
दाँतों की, डाढ़ों की रक्त-प्यास
प्राप्त कर धरती का विश्वास।
आ,
आ उतर नीचे
इस धरती पर
ओरे ओ, आसमान
हो समान
हो समान।