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नींद / अरुण कमल

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|संग्रह = सबूत / अरुण कमल
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धीरे-धीरे भारी हो रहा है
 
तुम्हारा शरीर
 
मेरी बाँह पर माथा तुम्हारा
 
:::ढल रहा है
 
नींद का शरीर
 
::शीरे की तरह गाढ़ा
 
::शहद की तरह भारी
 
डूबता चला जाता है
 
जल में
 
:तल तक
 
नींद मनुष्य पर मनुष्य का
 
विश्वास है।
</poem>
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