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"हिरोशिमा / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर

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एक दिन सहसा  
 
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धूप बरसी
 
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पर अंतरिक्ष से नहीं,
 
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फटी मिट्टी से।
 
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छायाएँ मानव-जन की
 
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बरसा सहसा
 
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काल-सूर्य के रथ के
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पहियों के ज्‍यों अरे टूट कर
 
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बिखर गए हों
 
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दसों दिशा में।
 
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कुछ क्षण का वह उदय-अस्‍त!
 
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केवल एक प्रज्‍वलित क्षण की
 
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दृष्‍य सोक लेने वाली एक दोपहरी।
 
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फिर?
 
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छायाएँ मानव-जन की
 
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नहीं मिटीं लंबी हो-हो कर:
 
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मानव ही सब भाप हो गए।
 
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छायाएँ तो अभी लिखी हैं
 
छायाएँ तो अभी लिखी हैं
 
 
झुलसे हुए पत्‍थरों पर
 
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उजरी सड़कों की गच पर।
 
उजरी सड़कों की गच पर।
 
  
 
मानव का रचा हुया सूरज
 
मानव का रचा हुया सूरज
 
 
मानव को भाप बनाकर सोख गया।
 
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पत्‍थर पर लिखी हुई यह
 
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जली हुई छाया  
 
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मानव की साखी है।
  
मानव की साखी है।
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'''दिल्ली-इलाहाबाद-कलकत्ता (रेल में), 10-12 जनवरी, 1959'''
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12:07, 9 अगस्त 2012 के समय का अवतरण

एक दिन सहसा
सूरज निकला
अरे क्षितिज पर नहीं,
नगर के चौक :
धूप बरसी
पर अंतरिक्ष से नहीं,
फटी मिट्टी से।

छायाएँ मानव-जन की
दिशाहिन
सब ओर पड़ीं-वह सूरज
नहीं उगा था वह पूरब में, वह
बरसा सहसा
बीचों-बीच नगर के:
काल-सूर्य के रथ के
पहियों के ज्‍यों अरे टूट कर
बिखर गए हों
दसों दिशा में।

कुछ क्षण का वह उदय-अस्‍त!
केवल एक प्रज्‍वलित क्षण की
दृष्‍य सोक लेने वाली एक दोपहरी।
फिर?
छायाएँ मानव-जन की
नहीं मिटीं लंबी हो-हो कर:
मानव ही सब भाप हो गए।
छायाएँ तो अभी लिखी हैं
झुलसे हुए पत्‍थरों पर
उजरी सड़कों की गच पर।

मानव का रचा हुया सूरज
मानव को भाप बनाकर सोख गया।
पत्‍थर पर लिखी हुई यह
जली हुई छाया
मानव की साखी है।

दिल्ली-इलाहाबाद-कलकत्ता (रेल में), 10-12 जनवरी, 1959