"खण्ड तीन / रामधारी सिंह "दिनकर"" के अवतरणों में अंतर
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+ | किरिचों पर कोई नया स्वप्न ढोते हो ? | ||
+ | किस नयी फसल के बीज वीर ! बोते हो ? | ||
+ | दुर्दान्त दस्यु को सेल हूलते हैं हम; | ||
+ | यम की दंष्ट्रा से खेल झूलते हैं हम। | ||
+ | वैसे तो कोई बात नहीं कहने को, | ||
+ | हम टूट रहे केवल स्वतंत्र रहने को। | ||
− | + | सामने देश माता का भव्य चरण है, | |
− | + | जिह्वा पर जलता हुआ एक, बस प्रण है, | |
+ | काटेंगे अरि का मुण्ड कि स्वयं कटेंगे, | ||
+ | पीछे, परन्तु, सीमा से नहीं हटेंगे। | ||
− | + | फूटेंगी खर निर्झरी तप्त कुण्डों से, | |
− | + | भर जायेगा नागराज रुण्ड-मुण्डों से। | |
− | + | माँगेगी जो रणचण्डी भेंट, चढ़ेगी। | |
− | + | लाशों पर चढ़ कर आगे फौज बढ़ेगी। | |
− | + | पहली आहुति है अभी, यज्ञ चलने दो, | |
− | + | दो हवा, देश की आज जरा जलने दो। | |
− | + | जब हृदय-हृदय पावक से भर जायेगा, | |
− | + | भारत का पूरा पाप उतर जायेगा; | |
− | + | देखोगे, कैसा प्रलय चण्ड होता है ! | |
− | + | असिवन्त हिन्द कितना प्रचण्ड होता है ! | |
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− | + | बाँहों से हम अम्बुधि अगाध थाहेंगे, | |
− | + | धँस जायेगी यह धरा, अगर चाहेंगे। | |
− | + | तूफान हमारे इंगित पर ठहरेंगे, | |
− | + | हम जहाँ कहेंगे, मेघ वहीं घहरेंगे। | |
− | + | जो असुर, हमें सुर समझ, आज हँसते हैं, | |
− | + | वंचक श्रृगाल भूँकते, साँप डँसते हैं, | |
+ | कल यही कृपा के लिए हाथ जोडेंगे, | ||
+ | भृकुटी विलोक दुष्टता-द्वन्द्व छोड़ेंगे। | ||
− | + | गरजो, अम्बर की भरो रणोच्चारों से, | |
− | + | क्रोधान्ध रोर, हाँकों से, हुंकारों से। | |
− | + | यह आग मात्र सीमा की नहीं लपट है, | |
− | + | मूढ़ो ! स्वतंत्रता पर ही यह संकट है। | |
− | जो | + | जातीय गर्व पर क्रूर प्रहार हुआ है, |
− | + | माँ के किरीट पर ही यह वार हुआ है। | |
− | + | अब जो सिर पर आ पड़े, नहीं डरना है, | |
− | + | जनमे हैं तो दो बार नहीं मरना है। | |
− | + | कुत्सित कलंक का बोध नहीं छोड़ेंगे, | |
− | + | हम बिना लिये प्रतिशोध नहीं छोड़ेंगे, | |
− | + | अरि का विरोध-अवरोध नहीं छोड़ेंगे, | |
− | + | जब तक जीवित है, क्रोध नहीं छोड़ेंगे। | |
− | + | गरजो हिमाद्रि के शिखर, तुंग पाटों पर, | |
− | + | गुलमार्ग, विन्ध्य, पश्चिमी, पूर्व घाटों पर, | |
− | + | भारत-समुद्र की लहर, ज्वार-भाटों पर, | |
− | + | गरजो, गरजो मीनार और लाटों पर। | |
− | + | खँडहरों, भग्न कोटों में, प्राचीरों में, | |
− | + | जाह्नवी, नर्मदा, यमुना के तीरों में, | |
− | + | कृष्णा-कछार में, कावेरी-कूलों में, | |
− | + | चित्तौड़-सिंहगढ़ के समीप धूलों में— | |
− | + | सोये हैं जो रणबली, उन्हें टेरो रे ! | |
− | + | नूतन पर अपनी शिखा प्रत्न फेरो रे ! | |
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− | + | ||
− | + | झकझोरो, झकझोरो महान् सुप्तों को, | |
− | + | टेरो, टेरो चाणक्य-चन्द्रगुप्तों को; | |
− | + | विक्रमी तेज, असि की उद्दाम प्रभा को, | |
− | + | राणा प्रताप, गोविन्द, शिवा, सरजा को; | |
− | + | वैराग्यवीर, बन्दा फकीर भाई को, | |
− | + | टेरो, टेरो माता लक्ष्मीबाई को। | |
− | + | आजन्मा सहा जिसने न व्यंग्य थोड़ा था, | |
− | + | आजिज आ कर जिसने स्वदेश को छोड़ा था, | |
− | + | हम हाय, आज तक, जिसको गुहराते हैं, | |
− | + | ‘नेताजी अब आते हैं, अब आते हैं; | |
− | + | साहसी, शूर-रस के उस मतवाले को, | |
− | टेरो, टेरो | + | टेरो, टेरो आज़ाद हिन्दवाले को। |
− | + | खोजो, टीपू सुलतान कहाँ सोये हैं ? | |
− | + | अशफ़ाक़ और उसमान कहाँ सोये हैं ? | |
− | + | बमवाले वीर जवान कहाँ सोये हैं ? | |
− | + | वे भगतसिंह बलवान कहाँ सोये हैं ? | |
− | + | जा कहो, करें अब कृपा, नहीं रूठें वे, | |
− | + | बम उठा बाज़ के सदृश व्यग्र टूटें वे। | |
− | + | हम मान गये, जब क्रान्तिकाल होता है, | |
− | + | सारी लपटों का रंग लाल होता है। | |
− | + | जाग्रत पौरुष प्रज्वलित ज्वाल होता हैं, | |
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− | हम मान गये, जब क्रान्तिकाल होता है, | + | |
− | सारी लपटों का रंग लाल होता है। | + | |
− | जाग्रत पौरुष प्रज्वलित ज्वाल होता हैं, | + | |
शूरत्व नहीं कोमल, कराल होता है। | शूरत्व नहीं कोमल, कराल होता है। | ||
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18:56, 27 अगस्त 2020 के समय का अवतरण
किरिचों पर कोई नया स्वप्न ढोते हो ?
किस नयी फसल के बीज वीर ! बोते हो ?
दुर्दान्त दस्यु को सेल हूलते हैं हम;
यम की दंष्ट्रा से खेल झूलते हैं हम।
वैसे तो कोई बात नहीं कहने को,
हम टूट रहे केवल स्वतंत्र रहने को।
सामने देश माता का भव्य चरण है,
जिह्वा पर जलता हुआ एक, बस प्रण है,
काटेंगे अरि का मुण्ड कि स्वयं कटेंगे,
पीछे, परन्तु, सीमा से नहीं हटेंगे।
फूटेंगी खर निर्झरी तप्त कुण्डों से,
भर जायेगा नागराज रुण्ड-मुण्डों से।
माँगेगी जो रणचण्डी भेंट, चढ़ेगी।
लाशों पर चढ़ कर आगे फौज बढ़ेगी।
पहली आहुति है अभी, यज्ञ चलने दो,
दो हवा, देश की आज जरा जलने दो।
जब हृदय-हृदय पावक से भर जायेगा,
भारत का पूरा पाप उतर जायेगा;
देखोगे, कैसा प्रलय चण्ड होता है !
असिवन्त हिन्द कितना प्रचण्ड होता है !
बाँहों से हम अम्बुधि अगाध थाहेंगे,
धँस जायेगी यह धरा, अगर चाहेंगे।
तूफान हमारे इंगित पर ठहरेंगे,
हम जहाँ कहेंगे, मेघ वहीं घहरेंगे।
जो असुर, हमें सुर समझ, आज हँसते हैं,
वंचक श्रृगाल भूँकते, साँप डँसते हैं,
कल यही कृपा के लिए हाथ जोडेंगे,
भृकुटी विलोक दुष्टता-द्वन्द्व छोड़ेंगे।
गरजो, अम्बर की भरो रणोच्चारों से,
क्रोधान्ध रोर, हाँकों से, हुंकारों से।
यह आग मात्र सीमा की नहीं लपट है,
मूढ़ो ! स्वतंत्रता पर ही यह संकट है।
जातीय गर्व पर क्रूर प्रहार हुआ है,
माँ के किरीट पर ही यह वार हुआ है।
अब जो सिर पर आ पड़े, नहीं डरना है,
जनमे हैं तो दो बार नहीं मरना है।
कुत्सित कलंक का बोध नहीं छोड़ेंगे,
हम बिना लिये प्रतिशोध नहीं छोड़ेंगे,
अरि का विरोध-अवरोध नहीं छोड़ेंगे,
जब तक जीवित है, क्रोध नहीं छोड़ेंगे।
गरजो हिमाद्रि के शिखर, तुंग पाटों पर,
गुलमार्ग, विन्ध्य, पश्चिमी, पूर्व घाटों पर,
भारत-समुद्र की लहर, ज्वार-भाटों पर,
गरजो, गरजो मीनार और लाटों पर।
खँडहरों, भग्न कोटों में, प्राचीरों में,
जाह्नवी, नर्मदा, यमुना के तीरों में,
कृष्णा-कछार में, कावेरी-कूलों में,
चित्तौड़-सिंहगढ़ के समीप धूलों में—
सोये हैं जो रणबली, उन्हें टेरो रे !
नूतन पर अपनी शिखा प्रत्न फेरो रे !
झकझोरो, झकझोरो महान् सुप्तों को,
टेरो, टेरो चाणक्य-चन्द्रगुप्तों को;
विक्रमी तेज, असि की उद्दाम प्रभा को,
राणा प्रताप, गोविन्द, शिवा, सरजा को;
वैराग्यवीर, बन्दा फकीर भाई को,
टेरो, टेरो माता लक्ष्मीबाई को।
आजन्मा सहा जिसने न व्यंग्य थोड़ा था,
आजिज आ कर जिसने स्वदेश को छोड़ा था,
हम हाय, आज तक, जिसको गुहराते हैं,
‘नेताजी अब आते हैं, अब आते हैं;
साहसी, शूर-रस के उस मतवाले को,
टेरो, टेरो आज़ाद हिन्दवाले को।
खोजो, टीपू सुलतान कहाँ सोये हैं ?
अशफ़ाक़ और उसमान कहाँ सोये हैं ?
बमवाले वीर जवान कहाँ सोये हैं ?
वे भगतसिंह बलवान कहाँ सोये हैं ?
जा कहो, करें अब कृपा, नहीं रूठें वे,
बम उठा बाज़ के सदृश व्यग्र टूटें वे।
हम मान गये, जब क्रान्तिकाल होता है,
सारी लपटों का रंग लाल होता है।
जाग्रत पौरुष प्रज्वलित ज्वाल होता हैं,
शूरत्व नहीं कोमल, कराल होता है।