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"इस पार उस पार / हरिवंशराय बच्चन" के अवतरणों में अंतर

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इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
  
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!<br>
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यह चाँद उदित होकर नभ में कुछ ताप मिटाता जीवन का,
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लहरालहरा यह शाखा‌एँ कुछ शोक भुला देती मन का,
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कल मुर्झानेवाली कलियाँ हँसकर कहती हैं मगन रहो,
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बुलबुल तरु की फुनगी पर से संदेश सुनाती यौवन का,
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तुम देकर मदिरा के प्याले मेरा मन बहला देती हो,
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उस पार मुझे बहलाने का उपचार न जाने क्या होगा!
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इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
  
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जग में रस की नदियाँ बहती, रसना दो बूंदें पाती है,
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जीवन की झिलमिलसी झाँकी नयनों के आगे आती है,
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स्वरतालमयी वीणा बजती, मिलती है बस झंकार मुझे,
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मेरे सुमनों की गंध कहीं यह वायु उड़ा ले जाती है!
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ऐसा सुनता, उस पार, प्रिये, ये साधन भी छिन जा‌एँगे,
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तब मानव की चेतनता का आधार न जाने क्या होगा!
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इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
  
यह चाँद उदित होकर नभ में कुछ ताप मिटाता जीवन का,<br>
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प्याला है पर पी पा‌एँगे, है ज्ञात नहीं इतना हमको,
लहरालहरा यह शाखा‌एँ कुछ शोक भुला देती मन का,<br>
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इस पार नियति ने भेजा है, असमर्थबना कितना हमको,
कल मुर्झानेवाली कलियाँ हँसकर कहती हैं मगन रहो,<br>
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कहने वाले, पर कहते है, हम कर्मों में स्वाधीन सदा,
बुलबुल तरु की फुनगी पर से संदेश सुनाती यौवन का,<br>
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करने वालों की परवशता है ज्ञात किसे, जितनी हमको?
तुम देकर मदिरा के प्याले मेरा मन बहला देती हो,<br>
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कह तो सकते हैं, कहकर ही कुछ दिल हलका कर लेते हैं,
उस पार मुझे बहलाने का उपचार न जाने क्या होगा!<br>
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उस पार अभागे मानव का अधिकार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!<br>
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इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
  
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कुछ भी न किया था जब उसका, उसने पथ में काँटे बोये,
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वे भार दि‌ए धर कंधों पर, जो रोरोकर हमने ढो‌ए,
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महलों के सपनों के भीतर जर्जर खँडहर का सत्य भरा!
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उर में एसी हलचल भर दी, दो रात न हम सुख से सो‌ए!
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अब तो हम अपने जीवन भर उस क्रूरकठिन को कोस चुके,
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उस पार नियति का मानव से व्यवहार न जाने क्या होगा!
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इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
  
जग में रस की नदियाँ बहती, रसना दो बूंदें पाती है,<br>
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संसृति के जीवन में, सुभगे! ऐसी भी घड़ियाँ आ‌ऐंगी,
जीवन की झिलमिलसी झाँकी नयनों के आगे आती है,<br>
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जब दिनकर की तमहर किरणे तम के अन्दर छिप जा‌एँगी,
स्वरतालमयी वीणा बजती, मिलती है बस झंकार मुझे,<br>
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जब निज प्रियतम का शव रजनी तम की चादर से ढक देगी,
मेरे सुमनों की गंध कहीं यह वायु उड़ा ले जाती है!<br>
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तब रविशशिपोषित यह पृथिवी कितने दिन खैर मना‌एगी!
ऐसा सुनता, उस पार, प्रिये, ये साधन भी छिन जा‌एँगे,<br>
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जब इस लंबेचौड़े जग का अस्तित्व न रहने पा‌एगा,
तब मानव की चेतनता का आधार न जाने क्या होगा!<br>
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तब तेरा मेरा नन्हासा संसार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!<br>
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इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
  
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ऐसा चिर पतझड़ आ‌एगा, कोयल न कुहुक फिर पा‌एगी,
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बुलबुल न अंधेरे में गागा जीवन की ज्योति जगा‌एगी,
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अगणित मृदुनव पल्लव के स्वर 'भरभर' न सुने जा‌एँगे,
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अलि‌अवली कलिदल पर गुंजन करने के हेतु न आ‌एगी,
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जब इतनी रसमय ध्वनियों का अवसान, प्रिय हो जा‌एगा,
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तब शुष्क हमारे कंठों का उद्गार न जाने क्या होगा!
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इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
  
प्याला है पर पी पा‌एँगे, है ज्ञात नहीं इतना हमको,<br>
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सुन काल प्रबल का गुरु गर्जन निर्झरिणी भूलेगी नर्तन,
इस पार नियति ने भेजा है, असमर्थबना कितना हमको,<br>
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निर्झर भूलेगा निज 'टलमल', सरिता अपना 'कलकल' गायन,
कहने वाले, पर कहते है, हम कर्मों में स्वाधीन सदा,<br>
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वह गायकनायक सिन्धु कहीं, चुप हो छिप जाना चाहेगा!
करने वालों की परवशता है ज्ञात किसे, जितनी हमको?<br>
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मुँह खोल खड़े रह जा‌एँगे गंधर्व, अप्सरा, किन्नरगण!
कह तो सकते हैं, कहकर ही कुछ दिल हलका कर लेते हैं,<br>
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संगीत सजीव हु‌आ जिनमें, जब मौन वही हो जा‌एँगे,
उस पार अभागे मानव का अधिकार न जाने क्या होगा!<br>
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तब, प्राण, तुम्हारी तंत्री का, जड़ तार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!<br>
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इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
  
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उतरे इन आखों के आगे जो हार चमेली ने पहने,
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वह छीन रहा देखो माली, सुकुमार लता‌ओं के गहने,
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दो दिन में खींची जा‌एगी ऊषा की साड़ी सिन्दूरी
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पट इन्द्रधनुष का सतरंगा पा‌एगा कितने दिन रहने!
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जब मूर्तिमती सत्ता‌ओं की शोभाशुषमा लुट जा‌एगी,
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तब कवि के कल्पित स्वप्नों का श्रृंगार न जाने क्या होगा!
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इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
  
कुछ भी न किया था जब उसका, उसने पथ में काँटे बोये,<br>
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दृग देख जहाँ तक पाते हैं, तम का सागर लहराता है,
वे भार दि‌ए धर कंधों पर, जो रोरोकर हमने ढो‌ए,<br>
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फिर भी उस पार खड़ा को‌ई हम सब को खींच बुलाता है!
महलों के सपनों के भीतर जर्जर खँडहर का सत्य भरा!<br>
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मैं आज चला तुम आ‌ओगी, कल, परसों, सब संगीसाथी,
उर में एसी हलचल भर दी, दो रात न हम सुख से सो‌ए!<br>
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दुनिया रोतीधोती रहती, जिसको जाना है, जाता है।
अब तो हम अपने जीवन भर उस क्रूरकठिन को कोस चुके,<br>
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मेरा तो होता मन डगडग मग, तट पर ही के हलकोरों से!
उस पार नियति का मानव से व्यवहार न जाने क्या होगा!<br>
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जब मैं एकाकी पहुँचूँगा, मँझधार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!<br>
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संसृति के जीवन में, सुभगे! ऐसी भी घड़ियाँ आ‌ऐंगी,<br>
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जब दिनकर की तमहर किरणे तम के अन्दर छिप जा‌एँगी,<br>
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जब निज प्रियतम का शव रजनी तम की चादर से ढक देगी,<br>
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तब रविशशिपोषित यह पृथिवी कितने दिन खैर मना‌एगी!<br>
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जब इस लंबेचौड़े जग का अस्तित्व न रहने पा‌एगा,<br>
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तब तेरा मेरा नन्हासा संसार न जाने क्या होगा!<br>
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इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!<br>
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ऐसा चिर पतझड़ आ‌एगा, कोयल न कुहुक फिर पा‌एगी,<br>
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बुलबुल न अंधेरे में गागा जीवन की ज्योति जगा‌एगी,<br>
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अगणित मृदुनव पल्लव के स्वर 'भरभर' न सुने जा‌एँगे,<br>
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अलि‌अवली कलिदल पर गुंजन करने के हेतु न आ‌एगी,<br>
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जब इतनी रसमय ध्वनियों का अवसान, प्रिय हो जा‌एगा,<br>
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तब शुष्क हमारे कंठों का उद्गार न जाने क्या होगा!<br>
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इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!<br>
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सुन काल प्रबल का गुरु गर्जन निर्झरिणी भूलेगी नर्तन,<br>
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निर्झर भूलेगा निज 'टलमल', सरिता अपना 'कलकल' गायन,<br>
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वह गायकनायक सिन्धु कहीं, चुप हो छिप जाना चाहेगा!<br>
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मुँह खोल खड़े रह जा‌एँगे गंधर्व, अप्सरा, किन्नरगण!<br>
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संगीत सजीव हु‌आ जिनमें, जब मौन वही हो जा‌एँगे,<br>
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तब, प्राण, तुम्हारी तंत्री का, जड़ तार न जाने क्या होगा!<br>
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इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!<br>
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उतरे इन आखों के आगे जो हार चमेली ने पहने,<br>
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वह छीन रहा देखो माली, सुकुमार लता‌ओं के गहने,<br>
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दो दिन में खींची जा‌एगी ऊषा की साड़ी सिन्दूरी<br>
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पट इन्द्रधनुष का सतरंगा पा‌एगा कितने दिन रहने!<br>
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जब मूर्तिमती सत्ता‌ओं की शोभाशुषमा लुट जा‌एगी,<br>
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तब कवि के कल्पित स्वप्नों का श्रृंगार न जाने क्या होगा!<br>
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इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!<br>
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दृग देख जहाँ तक पाते हैं, तम का सागर लहराता है,<br>
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फिर भी उस पार खड़ा को‌ई हम सब को खींच बुलाता है!<br>
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मैं आज चला तुम आ‌ओगी, कल, परसों, सब संगीसाथी,<br>
+
दुनिया रोतीधोती रहती, जिसको जाना है, जाता है।<br>
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मेरा तो होता मन डगडग मग, तट पर ही के हलकोरों से!<br>
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जब मैं एकाकी पहुँचूँगा, मँझधार न जाने क्या होगा!<br>
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इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
 
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

19:20, 11 अप्रैल 2013 के समय का अवतरण

इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

यह चाँद उदित होकर नभ में कुछ ताप मिटाता जीवन का,
लहरालहरा यह शाखा‌एँ कुछ शोक भुला देती मन का,
कल मुर्झानेवाली कलियाँ हँसकर कहती हैं मगन रहो,
बुलबुल तरु की फुनगी पर से संदेश सुनाती यौवन का,
तुम देकर मदिरा के प्याले मेरा मन बहला देती हो,
उस पार मुझे बहलाने का उपचार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

जग में रस की नदियाँ बहती, रसना दो बूंदें पाती है,
जीवन की झिलमिलसी झाँकी नयनों के आगे आती है,
स्वरतालमयी वीणा बजती, मिलती है बस झंकार मुझे,
मेरे सुमनों की गंध कहीं यह वायु उड़ा ले जाती है!
ऐसा सुनता, उस पार, प्रिये, ये साधन भी छिन जा‌एँगे,
तब मानव की चेतनता का आधार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

प्याला है पर पी पा‌एँगे, है ज्ञात नहीं इतना हमको,
इस पार नियति ने भेजा है, असमर्थबना कितना हमको,
कहने वाले, पर कहते है, हम कर्मों में स्वाधीन सदा,
करने वालों की परवशता है ज्ञात किसे, जितनी हमको?
कह तो सकते हैं, कहकर ही कुछ दिल हलका कर लेते हैं,
उस पार अभागे मानव का अधिकार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

कुछ भी न किया था जब उसका, उसने पथ में काँटे बोये,
वे भार दि‌ए धर कंधों पर, जो रोरोकर हमने ढो‌ए,
महलों के सपनों के भीतर जर्जर खँडहर का सत्य भरा!
उर में एसी हलचल भर दी, दो रात न हम सुख से सो‌ए!
अब तो हम अपने जीवन भर उस क्रूरकठिन को कोस चुके,
उस पार नियति का मानव से व्यवहार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

संसृति के जीवन में, सुभगे! ऐसी भी घड़ियाँ आ‌ऐंगी,
जब दिनकर की तमहर किरणे तम के अन्दर छिप जा‌एँगी,
जब निज प्रियतम का शव रजनी तम की चादर से ढक देगी,
तब रविशशिपोषित यह पृथिवी कितने दिन खैर मना‌एगी!
जब इस लंबेचौड़े जग का अस्तित्व न रहने पा‌एगा,
तब तेरा मेरा नन्हासा संसार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

ऐसा चिर पतझड़ आ‌एगा, कोयल न कुहुक फिर पा‌एगी,
बुलबुल न अंधेरे में गागा जीवन की ज्योति जगा‌एगी,
अगणित मृदुनव पल्लव के स्वर 'भरभर' न सुने जा‌एँगे,
अलि‌अवली कलिदल पर गुंजन करने के हेतु न आ‌एगी,
जब इतनी रसमय ध्वनियों का अवसान, प्रिय हो जा‌एगा,
तब शुष्क हमारे कंठों का उद्गार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

सुन काल प्रबल का गुरु गर्जन निर्झरिणी भूलेगी नर्तन,
निर्झर भूलेगा निज 'टलमल', सरिता अपना 'कलकल' गायन,
वह गायकनायक सिन्धु कहीं, चुप हो छिप जाना चाहेगा!
मुँह खोल खड़े रह जा‌एँगे गंधर्व, अप्सरा, किन्नरगण!
संगीत सजीव हु‌आ जिनमें, जब मौन वही हो जा‌एँगे,
तब, प्राण, तुम्हारी तंत्री का, जड़ तार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

उतरे इन आखों के आगे जो हार चमेली ने पहने,
वह छीन रहा देखो माली, सुकुमार लता‌ओं के गहने,
दो दिन में खींची जा‌एगी ऊषा की साड़ी सिन्दूरी
पट इन्द्रधनुष का सतरंगा पा‌एगा कितने दिन रहने!
जब मूर्तिमती सत्ता‌ओं की शोभाशुषमा लुट जा‌एगी,
तब कवि के कल्पित स्वप्नों का श्रृंगार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

दृग देख जहाँ तक पाते हैं, तम का सागर लहराता है,
फिर भी उस पार खड़ा को‌ई हम सब को खींच बुलाता है!
मैं आज चला तुम आ‌ओगी, कल, परसों, सब संगीसाथी,
दुनिया रोतीधोती रहती, जिसको जाना है, जाता है।
मेरा तो होता मन डगडग मग, तट पर ही के हलकोरों से!
जब मैं एकाकी पहुँचूँगा, मँझधार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!