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| − | + | घँगारुको लौरो टेकेर | |
| − | + | कोसीकिनारमा उभिएकी हजुरआमा | |
| − | + | उघाएर अँजुलीभरि पानी | |
| − | फेरिएनन् यी रुखका पातहरु | + | भन्छिन्– |
| − | + | फेरिएनन् यी रुखका पातहरु | |
| − | चरा ब्यूँझनुअघि हराएकाहरु | + | सङ्लिएन सप्तकोसी |
| − | + | भेटिएनन् चरा ब्यूँझनुअघि ओछ्यानबाटै हराएकाहरु । | |
बाबै ! | बाबै ! | ||
| − | आस्थाको तोरण | + | मक्किएको डोरीझैँ चुँडियो आस्थाको तोरण |
| − | + | चैते हुन्डरीले झैँ भत्कायो विश्वासको छानो | |
| − | फूलको | + | माहुरी आइपुग्नु अगावै सुक्यो फूलको रस |
| − | + | साँझको घामसँग गएका नातिनातिना फर्किएनन् आजसम्म । | |
| − | साँझको घामसँग गएका | + | |
| − | नातिनातिना फर्किएनन् | + | |
| − | लामो सास | + | तान्दै लामो सास |
| + | भन्छिन्– | ||
उफ ! | उफ ! | ||
| − | ताराका लामसँगै | + | ताराका लामसँगै पल्टिए इतिहासका पाना |
| − | इतिहासका पाना फेरिए | + | फेरिए लोककथा, दन्त्यकथा |
| − | लोककथा दन्त्यकथा | + | अहँ ! फेरिएनन् |
| − | + | आँगनकै ऋतुगीतहरु । | |
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| − | सन्तान हराएको दलानमा बसेर | + | सन्तान हराएको दलानमा बसेर |
| − | सुर्तीको लामो सर्को तान्दै | + | सुर्तीको लामो सर्को तान्दै भन्छिन्– |
| − | + | सँघार लिप्ने रातोमाटामा छोराको रङ छ | |
| − | छोराको रङ छ | + | तुलसीमठमा चढाउने पानीमा छोरीको रङ छ । |
| − | तुलसीमठमा चढाउने पानीमा | + | |
| − | छोरीको रङ छ | + | |
| − | + | पूर्णचन्द्रमुनि उभिएर भन्छिन्– | |
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बुझिराखेस् बाबै ! | बुझिराखेस् बाबै ! | ||
| − | + | नफेरिन्जेल यो ऋतुगीत | |
| − | + | रोइरहनेछन् फूल, चरा, झन्डा र माटो । | |
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| − | + | छचल्किरहनेछ सप्तकोसी | |
| − | + | सम्झिराखेस् बाबै ! | |
| − | + | आँखामा छचल्किरहनेछ सप्तकोसी । | |
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| − | सम्झिराखेस् बाबै ! | + | |
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11:41, 28 अप्रैल 2020 के समय का अवतरण
घँगारुको लौरो टेकेर
कोसीकिनारमा उभिएकी हजुरआमा
उघाएर अँजुलीभरि पानी
भन्छिन्–
फेरिएनन् यी रुखका पातहरु
सङ्लिएन सप्तकोसी
भेटिएनन् चरा ब्यूँझनुअघि ओछ्यानबाटै हराएकाहरु ।
बाबै !
मक्किएको डोरीझैँ चुँडियो आस्थाको तोरण
चैते हुन्डरीले झैँ भत्कायो विश्वासको छानो
माहुरी आइपुग्नु अगावै सुक्यो फूलको रस
साँझको घामसँग गएका नातिनातिना फर्किएनन् आजसम्म ।
तान्दै लामो सास
भन्छिन्–
उफ !
ताराका लामसँगै पल्टिए इतिहासका पाना
फेरिए लोककथा, दन्त्यकथा
अहँ ! फेरिएनन्
आँगनकै ऋतुगीतहरु ।
सन्तान हराएको दलानमा बसेर
सुर्तीको लामो सर्को तान्दै भन्छिन्–
सँघार लिप्ने रातोमाटामा छोराको रङ छ
तुलसीमठमा चढाउने पानीमा छोरीको रङ छ ।
पूर्णचन्द्रमुनि उभिएर भन्छिन्–
बुझिराखेस् बाबै !
नफेरिन्जेल यो ऋतुगीत
रोइरहनेछन् फूल, चरा, झन्डा र माटो ।
छचल्किरहनेछ सप्तकोसी
सम्झिराखेस् बाबै !
आँखामा छचल्किरहनेछ सप्तकोसी ।