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कुसुमों के जीवन का पल
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हँसता ही जग में देखा,
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इन म्लान, मलिन अधरों पर
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स्थिर रही न स्मिति की रेखा! 
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:बन की सूनी डाली पर
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:मैं सीख न पाया अब तक
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काँटों से कुटिल भरी हो
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यह जटिल जगत की डाली,
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इसमें ही तो जीवन के
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पल्लव की फूटी लाली।
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:अपनी डाली के काँटे
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:बेधते नहीं अपना तन,
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:सोने-सा उज्ज्वल बनने
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:तपता नित प्राणों का धन। 
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दुख-दावा से नव-अंकुर
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पाता जग-जीवन का बन,
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करुणार्द्र विश्व की गर्जन,
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बरसाती नव-जीवन-कण! 
  
कुसुमों के जीवन का पल<br>
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रचनाकाल: फ़रवरी’ १९३२
हँसता ही जग में देखा,<br>
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इन म्लान, मलिन अधरों पर<br>
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स्थिर रही न स्मिति की रेखा !<br><br>
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वन की सूनी डाली पर<br>
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सीखा कलि ने मुसकाना,<br>
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सुख से दुख को अपनाना !<br><br>
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काँटों से कुटिल भरी हो<br>
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यह जटिल जगत की डाली,<br>
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पल्लव की फूटी लाली !<br><br>
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अपनी डाली के काँटे<br>
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बेधते नहीं अपना तन<br>
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सोने-सा उज्जवल बनने<br>
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तपता नित प्राणों का धन !<br><br>
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दुख-दावा से नव अंकुर<br>
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पाता जग-जीवन का वन,<br>
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करुणार्द्र विश्व की गर्जन,<br>
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बरसाती नव जीवन-कण ! <br><br>
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(फरवरी,1932)
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11:27, 10 जून 2010 के समय का अवतरण

कुसुमों के जीवन का पल
हँसता ही जग में देखा,
इन म्लान, मलिन अधरों पर
स्थिर रही न स्मिति की रेखा!
बन की सूनी डाली पर
सीखा कलि ने मुसकाना,
मैं सीख न पाया अब तक
सुख से दुख को अपनाना।
काँटों से कुटिल भरी हो
यह जटिल जगत की डाली,
इसमें ही तो जीवन के
पल्लव की फूटी लाली।
अपनी डाली के काँटे
बेधते नहीं अपना तन,
सोने-सा उज्ज्वल बनने
तपता नित प्राणों का धन।
दुख-दावा से नव-अंकुर
पाता जग-जीवन का बन,
करुणार्द्र विश्व की गर्जन,
बरसाती नव-जीवन-कण!

रचनाकाल: फ़रवरी’ १९३२