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"सुधि के मेघ / यतींद्रनाथ राही" के अवतरणों में अंतर

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पवन प्रकंपित
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रहे सींचते, ऊसर बंजर
सुमन सशंकित
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हरियाली के दरस न पाए
चिनगारी लग रही सुलगने
+
आज
ऐसे भी अच्छे वसन्त के
+
अषाढ़ी अहसासों पर
दिन आते देखे हैं हमने।
+
सुधि के
 +
सघन मेघ घिर छाए।
  
वर्तमान के कुरुक्षेत्र में
+
रातों को छोटा कर देती
हम अतीत के चरण पकड़कर
+
थी लम्बी पगली वार्ताएं
कुटिल कुचालित चक्रव्यूह में
+
और शीत की ठिठुरन वाली
टूट रहे हैं उलझ-उलझ कर
+
वे मादक कोमल ऊष्माएँ
अन्धी क्षुद्र मानसिकताएँ
+
ओस नहायी
कुछ लँगड़ी वैचारिक गतियाँ
+
किरन कुनकुनी
अपने खून पसीने से ही
+
छुए अंग अलसाए।
बन न सकीं अपनी सहमतियाँ
+
अँधियारों में कभी लिखी थी
भीतर-भीतर लाक्षाग्रह हैं
+
जो उजियारी प्रणय कथाएँ
बाहर इन्द्रप्रस्थ के सपने
+
भरी दुपहरी बाँचा करती
 +
थीं उनको चन्दनी हवाएँ
 +
हरित कछारों में
 +
दिन हिरना
 +
जाने कहों कहाँ भरमाए।
  
थोथे पाप-शाप-वरदानों-
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संस्पर्शों के मौन स्वरों में
में अपनी क्शमताएँ भूले
+
कितने वाद्य निनाद ध्वनित थे
नक्शत्रों को चले नापने
+
किसी अजाने स्वर्गलोक के
पर त्रिशंकु से नभ में झूले
+
रस के अमृत कलश स्रवित थे
कहाँ सत्य है, कहाँ झूठ है
+
प्राण-प्राण पुलकित
बड़ी जटिल है माया नगरी
+
अधरों ने
पनघट उफन-उफन बहता है
+
जब अपने
पर प्यासी-तरसी हर गगरी
+
मधुकोश लुटाए।
पिटे सीढ़ियाँ गढ़ने वाले
+
सिंहासन पर
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अपने-अपने।
+
  
मलते हाथ रहे/मुट्ठी में
+
बाँध नहीं पाते शब्दों में
संकल्पों को बाँध न पाए
+
पल-पल पुलकित
कर्म-कुकर्म स्वार्थ के लोलुप
+
वे पावनक्शण
लक्ष्य बिन्दु संधान न पाए
+
बूँद-बूँद में प्राप्त तृप्ति-सुख
एक-एक क्शण माणक-मुक्ता
+
साँस-साँस में अर्पण-अर्पण
टूट-टूट कर रेत हो गए
+
उल्लासों के वे मृग-छौने
जाने कब सुरभित उपवन ये
+
नहीं लौटकर फिर घर आए।
नागफनी के खेत हो गए
+
धरकर टूटी हुई बाँसुरी
+
बैठे श्याम  भागवत जपने
+
 
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11:59, 12 अक्टूबर 2017 के समय का अवतरण

रहे सींचते, ऊसर बंजर
हरियाली के दरस न पाए
आज
अषाढ़ी अहसासों पर
सुधि के
सघन मेघ घिर छाए।

रातों को छोटा कर देती
थी लम्बी पगली वार्ताएं
और शीत की ठिठुरन वाली
वे मादक कोमल ऊष्माएँ
ओस नहायी
किरन कुनकुनी
छुए अंग अलसाए।
अँधियारों में कभी लिखी थी
जो उजियारी प्रणय कथाएँ
भरी दुपहरी बाँचा करती
थीं उनको चन्दनी हवाएँ
हरित कछारों में
दिन हिरना
जाने कहों कहाँ भरमाए।

संस्पर्शों के मौन स्वरों में
कितने वाद्य निनाद ध्वनित थे
किसी अजाने स्वर्गलोक के
रस के अमृत कलश स्रवित थे
प्राण-प्राण पुलकित
अधरों ने
जब अपने
मधुकोश लुटाए।

बाँध नहीं पाते शब्दों में
पल-पल पुलकित
वे पावनक्शण
बूँद-बूँद में प्राप्त तृप्ति-सुख
साँस-साँस में अर्पण-अर्पण
उल्लासों के वे मृग-छौने
नहीं लौटकर फिर घर आए।