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<poem>
फैसला छोड़िये छोड़िए तीसरे के हाथ में,आप पूरे नहीं हम,हम अधूरे नही। 
मन की भाषा को पढ़ना
हमें आ गया,
स्वयं के लिए
शेष बचता है क्या जीतने के लिए।
 तार कसते ही मन झन झनाने झनझनाने लगेआपके हाथ के हम,हम तमूरे नहीं।
हमने सीखा नही जड़ से
कटना कभी
भार सबका उठाना हमें आ गया।
कद क़द के देवों को पूजा
नहीं आज तक
साथ गहराइयों का हमें भा गया।
 
ठोस आधार देते भवन के लिए
नींव की ईंट है हम
कंगूरे कँगूरे नहीं।
मन में अभिमान को कब
पनपने दिया।
निज के गौरव का हमने सम्हाला रतन।
हमको निंदा प्रसंशा निन्दा प्रशंसा की
परवाह क्या
साधना का निरन्तर रहेगा जतन।
 
अर्थ विभ्रम के चक्कर में हम क्यों पड़े
स्वर्ण ही है खरे हम
धतूरे नहीं।
क्या है अच्छा बुरा
क्या हमारे लिए
मंज़िलों का पता
कोई तो है जो सपनो में दिखला गया।
 
बात मानेंगे हम क्यों बिना तर्क की
मन के उस्ताद है हम
जमूरे नहीं।
</poem>
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