"रश्मिरथी / चतुर्थ सर्ग / भाग 7" के अवतरणों में अंतर
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'हाँ, पड़ पुत्र-प्रेम में आया था छल ही करने को, | 'हाँ, पड़ पुत्र-प्रेम में आया था छल ही करने को, | ||
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जान-बूझ कर कवच और कुण्डल तुझसे हरने को, | जान-बूझ कर कवच और कुण्डल तुझसे हरने को, | ||
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वह छल हुआ प्रसिद्ध किसे, क्या मुख अब दिखलाऊंगा, | वह छल हुआ प्रसिद्ध किसे, क्या मुख अब दिखलाऊंगा, | ||
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आया था बन विप्र, चोर बनकर वापस जाऊँगा. | आया था बन विप्र, चोर बनकर वापस जाऊँगा. | ||
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'वंदनीय तू कर्ण, देखकर तेज तिग्म अति तेरा, | 'वंदनीय तू कर्ण, देखकर तेज तिग्म अति तेरा, | ||
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काँप उठा था आते ही देवत्वपूर्ण मन मेरा. | काँप उठा था आते ही देवत्वपूर्ण मन मेरा. | ||
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किन्तु, अभी तो तुझे देख मन और डरा जाता है, | किन्तु, अभी तो तुझे देख मन और डरा जाता है, | ||
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'दीख रहा तू मुझे ज्योति के उज्ज्वल शैल अचल-सा, | 'दीख रहा तू मुझे ज्योति के उज्ज्वल शैल अचल-सा, | ||
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कोटि-कोटि जन्मों के संचित महपुण्य के फल-सा. | कोटि-कोटि जन्मों के संचित महपुण्य के फल-सा. | ||
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त्रिभुवन में जिन अमित योगियों का प्रकाश जगता है, | त्रिभुवन में जिन अमित योगियों का प्रकाश जगता है, | ||
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उनके पूंजीभूत रूप-सा तू मुझको लगता है. | उनके पूंजीभूत रूप-सा तू मुझको लगता है. | ||
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'खड़े दीखते जगन्नियता पीछे तुझे गगन में, | 'खड़े दीखते जगन्नियता पीछे तुझे गगन में, | ||
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बड़े प्रेम से लिए तुझे ज्योतिर्मय आलिंगन में. | बड़े प्रेम से लिए तुझे ज्योतिर्मय आलिंगन में. | ||
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दान, धर्म, अगणित व्रत-साधन, योग, यज्ञ, तप तेरे, | दान, धर्म, अगणित व्रत-साधन, योग, यज्ञ, तप तेरे, | ||
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सब प्रकाश बन खड़े हुए हैं तुझे चतुर्दिक घेरे. | सब प्रकाश बन खड़े हुए हैं तुझे चतुर्दिक घेरे. | ||
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'मही मग्न हो तुझे अंक में लेकर इठलाती है, | 'मही मग्न हो तुझे अंक में लेकर इठलाती है, | ||
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मस्तक सूंघ स्वत्व अपना यह कहकर जतलाती है. | मस्तक सूंघ स्वत्व अपना यह कहकर जतलाती है. | ||
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'इसने मेरे अमित मलिन पुत्रों का दुख मेटा है, | 'इसने मेरे अमित मलिन पुत्रों का दुख मेटा है, | ||
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सूर्यपुत्र यह नहीं, कर्ण मुझ दुखिया का बेटा है.' | सूर्यपुत्र यह नहीं, कर्ण मुझ दुखिया का बेटा है.' | ||
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'तू दानी, मैं कुटिल प्रवंचक, तू पवित्र, मैं पापी, | 'तू दानी, मैं कुटिल प्रवंचक, तू पवित्र, मैं पापी, | ||
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तू देकर भी सुखी और मैं लेकर भी परितापी. | तू देकर भी सुखी और मैं लेकर भी परितापी. | ||
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तू पहुँचा है जहाँ कर्ण, देवत्व न जा सकता है, | तू पहुँचा है जहाँ कर्ण, देवत्व न जा सकता है, | ||
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इस महान पद को कोई मानव ही पा सकता है. | इस महान पद को कोई मानव ही पा सकता है. | ||
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'देख न सकता अधिक और मैं कर्ण, रूप यह तेरा, | 'देख न सकता अधिक और मैं कर्ण, रूप यह तेरा, | ||
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काट रहा है मुझे जागकर पाप भयानक मेरा. | काट रहा है मुझे जागकर पाप भयानक मेरा. | ||
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तेरे इस पावन स्वरूप में जितना ही पगता हूँ, | तेरे इस पावन स्वरूप में जितना ही पगता हूँ, | ||
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उतना ही मैं और अधिक बर्बर-समान लगता हूँ. | उतना ही मैं और अधिक बर्बर-समान लगता हूँ. | ||
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'अतः कर्ण! कर कृपा यहाँ से मुझे तुरत जाने दो, | 'अतः कर्ण! कर कृपा यहाँ से मुझे तुरत जाने दो, | ||
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अपने इस दूर्द्धर्ष तेज से त्राण मुझे पाने दो. | अपने इस दूर्द्धर्ष तेज से त्राण मुझे पाने दो. | ||
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मगर विदा देने के पहले एक कृपा यह कर दो, | मगर विदा देने के पहले एक कृपा यह कर दो, | ||
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मुझ निष्ठुर से भी कोई ले माँग सोच कर वर लो. | मुझ निष्ठुर से भी कोई ले माँग सोच कर वर लो. | ||
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कहा कर्ण ने, 'धन्य हुआ मैं आज सभी कुछ देकर, | कहा कर्ण ने, 'धन्य हुआ मैं आज सभी कुछ देकर, | ||
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देवराज! अब क्या होगा वरदान नया कुछ लेकर? | देवराज! अब क्या होगा वरदान नया कुछ लेकर? | ||
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बस, आशिष दीजिए, धर्म मे मेरा भाव अचल हो, | बस, आशिष दीजिए, धर्म मे मेरा भाव अचल हो, | ||
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वही छत्र हो, वही मुकुट हो, वही कवच-कुण्डल हो. | वही छत्र हो, वही मुकुट हो, वही कवच-कुण्डल हो. | ||
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देवराज बोले कि, 'कर्ण! यदि धर्म तुझे छोड़ेगा, | देवराज बोले कि, 'कर्ण! यदि धर्म तुझे छोड़ेगा, | ||
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निज रक्षा के लिए नया सम्बन्ध कहाँ जोड़ेगा? | निज रक्षा के लिए नया सम्बन्ध कहाँ जोड़ेगा? | ||
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और धर्म को तू छोड़ेगा भला पुत्र! किस भय से? | और धर्म को तू छोड़ेगा भला पुत्र! किस भय से? | ||
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अभी-अभी रक्खा जब इतना ऊपर उसे विजय से. | अभी-अभी रक्खा जब इतना ऊपर उसे विजय से. | ||
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धर्म नहीं, मैने तुझसे से जो वस्तु हरण कर ली है, | धर्म नहीं, मैने तुझसे से जो वस्तु हरण कर ली है, | ||
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छल से कर आघात तुझे जो निस्सहायता दी है. | छल से कर आघात तुझे जो निस्सहायता दी है. | ||
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उसे दूर या कम करने की है मुझको अभिलाषा, | उसे दूर या कम करने की है मुझको अभिलाषा, | ||
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पर, स्वेच्छा से नहीं पूजने देगा तू यह आशा. | पर, स्वेच्छा से नहीं पूजने देगा तू यह आशा. | ||
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'तू माँगें कुछ नहीं, किन्तु मुझको अवश्य देना है, | 'तू माँगें कुछ नहीं, किन्तु मुझको अवश्य देना है, | ||
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मन का कठिन बोझ थोड़ा-सा हल्का कर लेना है. | मन का कठिन बोझ थोड़ा-सा हल्का कर लेना है. | ||
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ले अमोघ यह अस्त्र, काल को भी यह खा सकता है, | ले अमोघ यह अस्त्र, काल को भी यह खा सकता है, | ||
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इसका कोई वार किसी पर विफल न जा सकता है. | इसका कोई वार किसी पर विफल न जा सकता है. | ||
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'एक बार ही मगर, काम तू इससे ले पायेगा, | 'एक बार ही मगर, काम तू इससे ले पायेगा, | ||
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फिर यह तुरत लौट कर मेरे पास चला जायेगा. | फिर यह तुरत लौट कर मेरे पास चला जायेगा. | ||
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अतः वत्स! मत इसे चलाना कभी वृथा चंचल हो, | अतः वत्स! मत इसे चलाना कभी वृथा चंचल हो, | ||
− | + | लेना काम तभी जब तुझको और न कोई बल हो. | |
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'दानवीर! जय हो, महिमा का गान सभी जन गाये, | 'दानवीर! जय हो, महिमा का गान सभी जन गाये, | ||
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देव और नर, दोनों ही, तेरा चरित्र अपनाये.' | देव और नर, दोनों ही, तेरा चरित्र अपनाये.' | ||
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दे अमोघ शर-दान सिधारे देवराज अम्बर को, | दे अमोघ शर-दान सिधारे देवराज अम्बर को, | ||
− | + | व्रत का अंतिम मूल्य चुका कर गया कर्ण निज घर को | |
− | व्रत का अंतिम मूल्य चुका कर गया कर्ण निज घर को | + | </poem> |
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22:53, 30 अगस्त 2020 के समय का अवतरण
'हाँ, पड़ पुत्र-प्रेम में आया था छल ही करने को,
जान-बूझ कर कवच और कुण्डल तुझसे हरने को,
वह छल हुआ प्रसिद्ध किसे, क्या मुख अब दिखलाऊंगा,
आया था बन विप्र, चोर बनकर वापस जाऊँगा.
'वंदनीय तू कर्ण, देखकर तेज तिग्म अति तेरा,
काँप उठा था आते ही देवत्वपूर्ण मन मेरा.
किन्तु, अभी तो तुझे देख मन और डरा जाता है,
हृदय सिमटता हुआ आप-ही-आप मरा जाता है.
'दीख रहा तू मुझे ज्योति के उज्ज्वल शैल अचल-सा,
कोटि-कोटि जन्मों के संचित महपुण्य के फल-सा.
त्रिभुवन में जिन अमित योगियों का प्रकाश जगता है,
उनके पूंजीभूत रूप-सा तू मुझको लगता है.
'खड़े दीखते जगन्नियता पीछे तुझे गगन में,
बड़े प्रेम से लिए तुझे ज्योतिर्मय आलिंगन में.
दान, धर्म, अगणित व्रत-साधन, योग, यज्ञ, तप तेरे,
सब प्रकाश बन खड़े हुए हैं तुझे चतुर्दिक घेरे.
'मही मग्न हो तुझे अंक में लेकर इठलाती है,
मस्तक सूंघ स्वत्व अपना यह कहकर जतलाती है.
'इसने मेरे अमित मलिन पुत्रों का दुख मेटा है,
सूर्यपुत्र यह नहीं, कर्ण मुझ दुखिया का बेटा है.'
'तू दानी, मैं कुटिल प्रवंचक, तू पवित्र, मैं पापी,
तू देकर भी सुखी और मैं लेकर भी परितापी.
तू पहुँचा है जहाँ कर्ण, देवत्व न जा सकता है,
इस महान पद को कोई मानव ही पा सकता है.
'देख न सकता अधिक और मैं कर्ण, रूप यह तेरा,
काट रहा है मुझे जागकर पाप भयानक मेरा.
तेरे इस पावन स्वरूप में जितना ही पगता हूँ,
उतना ही मैं और अधिक बर्बर-समान लगता हूँ.
'अतः कर्ण! कर कृपा यहाँ से मुझे तुरत जाने दो,
अपने इस दूर्द्धर्ष तेज से त्राण मुझे पाने दो.
मगर विदा देने के पहले एक कृपा यह कर दो,
मुझ निष्ठुर से भी कोई ले माँग सोच कर वर लो.
कहा कर्ण ने, 'धन्य हुआ मैं आज सभी कुछ देकर,
देवराज! अब क्या होगा वरदान नया कुछ लेकर?
बस, आशिष दीजिए, धर्म मे मेरा भाव अचल हो,
वही छत्र हो, वही मुकुट हो, वही कवच-कुण्डल हो.
देवराज बोले कि, 'कर्ण! यदि धर्म तुझे छोड़ेगा,
निज रक्षा के लिए नया सम्बन्ध कहाँ जोड़ेगा?
और धर्म को तू छोड़ेगा भला पुत्र! किस भय से?
अभी-अभी रक्खा जब इतना ऊपर उसे विजय से.
धर्म नहीं, मैने तुझसे से जो वस्तु हरण कर ली है,
छल से कर आघात तुझे जो निस्सहायता दी है.
उसे दूर या कम करने की है मुझको अभिलाषा,
पर, स्वेच्छा से नहीं पूजने देगा तू यह आशा.
'तू माँगें कुछ नहीं, किन्तु मुझको अवश्य देना है,
मन का कठिन बोझ थोड़ा-सा हल्का कर लेना है.
ले अमोघ यह अस्त्र, काल को भी यह खा सकता है,
इसका कोई वार किसी पर विफल न जा सकता है.
'एक बार ही मगर, काम तू इससे ले पायेगा,
फिर यह तुरत लौट कर मेरे पास चला जायेगा.
अतः वत्स! मत इसे चलाना कभी वृथा चंचल हो,
लेना काम तभी जब तुझको और न कोई बल हो.
'दानवीर! जय हो, महिमा का गान सभी जन गाये,
देव और नर, दोनों ही, तेरा चरित्र अपनाये.'
दे अमोघ शर-दान सिधारे देवराज अम्बर को,
व्रत का अंतिम मूल्य चुका कर गया कर्ण निज घर को