"मिलन में भी / कविता भट्ट" के अवतरणों में अंतर
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= कविता भट्ट |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <Poem> </poem>' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
|||
(इसी सदस्य द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 6: | पंक्ति 6: | ||
{{KKCatKavita}} | {{KKCatKavita}} | ||
<Poem> | <Poem> | ||
+ | |||
+ | '''9-फैलाओं अपनी बाँहें''' | ||
+ | |||
+ | हे प्रिय ! | ||
+ | कभी उस आकाश-सी | ||
+ | फैलाओ अपनी बाँहें, | ||
+ | जो धरती की उन्मुक्त गति को | ||
+ | निरंतर देता है प्रिय आधार | ||
+ | जिससे धरती पर | ||
+ | बरसते हैं बादल | ||
+ | आती-जाती हैं ऋतुएँ | ||
+ | ग्रीष्म, वर्षा, शरद | ||
+ | शिशिर, हेमंत और बसंत ... | ||
+ | |||
+ | '''10-किसी दिन तो''' | ||
+ | |||
+ | किसी दिन तो | ||
+ | फूटता तुम्हारा प्रेम | ||
+ | पहाड़ से छल-छल | ||
+ | बहते झरने-सा | ||
+ | अभिसिंचित होता तन-मन | ||
+ | अतृप्त धरा-सा । | ||
+ | |||
+ | '''11-मिलन में भी''' | ||
+ | |||
+ | प्रेम की पराकाष्ठा | ||
+ | तुमसे लिपटी हुई | ||
+ | तुम्हारे पास ही होती हूँ | ||
+ | तब भी तुम्हारी ही | ||
+ | याद में रोती हूँ। | ||
+ | |||
+ | '''12- तुम क्या जानो ?''' | ||
+ | |||
+ | तुम वातानुकूलित प्रेमी | ||
+ | मैं नीलांचल की जलधारा | ||
+ | पर्वतों की गोद में | ||
+ | उन्मुक्त बहने का सुख | ||
+ | तुम क्या जानो? | ||
+ | |||
+ | '''13-पत्थर होती अहल्या''' | ||
+ | |||
+ | मदमस्त इंद्र | ||
+ | गौतम भी वैसे ही सशंकित क्रुद्ध | ||
+ | किन्तु, राम हो गए तटस्थ द्रष्टा | ||
+ | संभवतः ; स्पर्श करना भूल गए हैं; | ||
+ | इसीलिए शिलाएँ | ||
+ | अब | ||
+ | पुनः अहल्या नहीं बन पाती | ||
+ | टूटती-पिसती हैं | ||
+ | हो जाती हैं -धूल। | ||
+ | |||
+ | '''14 -हे प्रिय!''' | ||
+ | |||
+ | हे प्रिय! | ||
+ | पुस्तकालय की पुस्तक सी मैं | ||
+ | शीशे की सुन्दर बुक रैक में कैद | ||
+ | तुम मॉडर्न युग के पाठक से | ||
+ | पूरा संसार लिये मोबाइल हाथ में | ||
+ | किन्तु, मेरे चेहरे पर लिखे | ||
+ | शब्दों को पढ़ना तो दूर | ||
+ | मुझ पर पड़ी- धूल भी नहीं झाड़ते ! | ||
+ | |||
+ | '''15-अथाह प्रेम''' | ||
+ | |||
+ | उसने कहा- | ||
+ | मुझे तुमसे अथाह प्रेम है | ||
+ | मैंने कहा- | ||
+ | तुम्हें यह प्रेम मुझसे है | ||
+ | या स्वयं से ! | ||
+ | |||
+ | '''16-कामनाएँ''' | ||
+ | |||
+ | लहलहाती फसल -सी | ||
+ | कामनाएँ उसकी | ||
+ | ओलावृष्टि -सी युग दृष्टि | ||
+ | विवश कृषक- सी वह | ||
+ | फिर भी चुनती | ||
+ | ओलों को मोती- सा | ||
+ | -0- | ||
</poem> | </poem> |
09:18, 18 जुलाई 2020 के समय का अवतरण
9-फैलाओं अपनी बाँहें
हे प्रिय !
कभी उस आकाश-सी
फैलाओ अपनी बाँहें,
जो धरती की उन्मुक्त गति को
निरंतर देता है प्रिय आधार
जिससे धरती पर
बरसते हैं बादल
आती-जाती हैं ऋतुएँ
ग्रीष्म, वर्षा, शरद
शिशिर, हेमंत और बसंत ...
10-किसी दिन तो
किसी दिन तो
फूटता तुम्हारा प्रेम
पहाड़ से छल-छल
बहते झरने-सा
अभिसिंचित होता तन-मन
अतृप्त धरा-सा ।
11-मिलन में भी
प्रेम की पराकाष्ठा
तुमसे लिपटी हुई
तुम्हारे पास ही होती हूँ
तब भी तुम्हारी ही
याद में रोती हूँ।
12- तुम क्या जानो ?
तुम वातानुकूलित प्रेमी
मैं नीलांचल की जलधारा
पर्वतों की गोद में
उन्मुक्त बहने का सुख
तुम क्या जानो?
13-पत्थर होती अहल्या
मदमस्त इंद्र
गौतम भी वैसे ही सशंकित क्रुद्ध
किन्तु, राम हो गए तटस्थ द्रष्टा
संभवतः ; स्पर्श करना भूल गए हैं;
इसीलिए शिलाएँ
अब
पुनः अहल्या नहीं बन पाती
टूटती-पिसती हैं
हो जाती हैं -धूल।
14 -हे प्रिय!
हे प्रिय!
पुस्तकालय की पुस्तक सी मैं
शीशे की सुन्दर बुक रैक में कैद
तुम मॉडर्न युग के पाठक से
पूरा संसार लिये मोबाइल हाथ में
किन्तु, मेरे चेहरे पर लिखे
शब्दों को पढ़ना तो दूर
मुझ पर पड़ी- धूल भी नहीं झाड़ते !
15-अथाह प्रेम
उसने कहा-
मुझे तुमसे अथाह प्रेम है
मैंने कहा-
तुम्हें यह प्रेम मुझसे है
या स्वयं से !
16-कामनाएँ
लहलहाती फसल -सी
कामनाएँ उसकी
ओलावृष्टि -सी युग दृष्टि
विवश कृषक- सी वह
फिर भी चुनती
ओलों को मोती- सा
-0-