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"कोई बिल्‍ली ही आए / अच्युतानंद मिश्र" के अवतरणों में अंतर

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रेंगते रहते हैं मस्तिष्‍क में
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नींद और जागरण की धुंधली दुनिया में
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फँसा मैं
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रच नहीं पाता कविता
  
रात रात भर<br>
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पक्षियों की कतार
शब्‍द <br>
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आसमान में गुज़रती जाती है
रेंगते रहते हैं मस्तिष्‍क में<br>
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और चांद
नींद और जागरण की धुंधली दुनिया में<br>
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यूँ ही ताकता रहता है धरती को
फंसा मैं<br>
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और दोस्‍त
रच नहीं पाता कविता<br><br>
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लिखते रहते हैं कविता
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नीली और गुलाबी कापियों पर
  
पक्षियों की कतार<br>
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वे भरती जाती हैं
आसमान में गुजरती जाती है<br>
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भर जाती हैं एक रात
और चांद <br>
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टूटी हुई नींद और अधूरे सपनों से
यूं ही ताकता रहता है धरती को<br>
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और दोस्‍त<br>
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लिखते रहते हैं कविता<br>
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नीली और गुलाबी कापियों पर<br><br>
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वे भरती जाती हैं<br>
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सूरज के अग्निगर्भ में पिघलती रहती है
भर जाती हैं एक रात<br>
+
रात
टूटी हुई नींद और अधूरे सपनों से<br><br>
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मेरी तलहथियों का पसीना
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सूख जाता है
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आंखों में पसर जाती है उदासी
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और रात
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सुलग रही होती है
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मेरे अधूरे सपनों में
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सड़े पानी सी
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गंधाती रहती हैं स्‍मृतियाँ
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भाप उठती रहती है
  
सूरज के अग्निगर्भ में पिघलती रहती है<br>
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निस्‍तब्‍ध शांति है चारों ओर
रात<br>
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कि एक पत्‍ता
मेरी तलहथियों का पसीना <br>
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भी नहीं खड़कता
सूख जाता है<br>
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जैसे पृथ्‍वी अचानक भूल गयी हो घूमना
आंखों में पसर जाती है उदासी<br>
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जैसे दुनिया में किसी भूकंप
और रात <br>
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किसी ज्‍वालामुखी के फटने
सुलग रही होती है <br>
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किसी समंदर के उफनने
मेरे अधूरे सपनों में<br>
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किसी पहाड़ के ढहने की
सड़े पानी सी <br>
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कोई आशंका ही ना बची हो
गंधाती रहती हैं स्‍मृतियां<br>
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भाप उठती रहती है <br><br>
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निस्‍तब्‍ध शांति है चारों ओर<br>
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भय होता है ऐसी शांति से
कि एक पत्‍ता<br>
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भी नहीं खड़कता<br>
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जैसे पृथ्‍वी अचानक भूल गयी हो घूमना<br>
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जैसे दुनयिां में किसी भूकंप<br>
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या कोई चूहा गिरा जाए
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कुछ तो हिले बदले कुछ
  
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चिचियाते पक्षी बदलते जाते हैं
या कोई चूहा गिरा जाए <br>
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इंसानों में
पानी का ग्‍लास<br>
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सूरज का रंक्तिम लाल रंग
कुछ तो हिले बदले कुछ<br><br>
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फैलता जाता है आसमानों में चारो ओर
 
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पर कलियाँ
चिचियाते पंक्ष्‍ी बदलते जाते हैं<br>
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गुस्‍से में बंद हों जैसे और
इंसानों में<br>
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फूलों में तब्‍दीली से इनकार हो उन्‍हें...
सूरज का रंक्तिम लाल रंग<br>
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फैलता जाता है आसमानों में चारो ओर<br>
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पर कलियां <br>
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गुस्‍से में बंद हों जैसे और<br>
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फूलों में तब्‍दीली से इनकार हो उन्‍हें...<br>
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20:44, 16 मार्च 2009 के समय का अवतरण

रात रात भर
शब्‍द
रेंगते रहते हैं मस्तिष्‍क में
नींद और जागरण की धुंधली दुनिया में
फँसा मैं
रच नहीं पाता कविता

पक्षियों की कतार
आसमान में गुज़रती जाती है
और चांद
यूँ ही ताकता रहता है धरती को
और दोस्‍त
लिखते रहते हैं कविता
नीली और गुलाबी कापियों पर

वे भरती जाती हैं
भर जाती हैं एक रात
टूटी हुई नींद और अधूरे सपनों से

सूरज के अग्निगर्भ में पिघलती रहती है
रात
मेरी तलहथियों का पसीना
सूख जाता है
आंखों में पसर जाती है उदासी
और रात
सुलग रही होती है
मेरे अधूरे सपनों में
सड़े पानी सी
गंधाती रहती हैं स्‍मृतियाँ
भाप उठती रहती है

निस्‍तब्‍ध शांति है चारों ओर
कि एक पत्‍ता
भी नहीं खड़कता
जैसे पृथ्‍वी अचानक भूल गयी हो घूमना
जैसे दुनिया में किसी भूकंप
किसी ज्‍वालामुखी के फटने
किसी समंदर के उफनने
किसी पहाड़ के ढहने की
कोई आशंका ही ना बची हो

भय होता है ऐसी शांति से

कोई बिल्‍ली ही आए
या कोई चूहा गिरा जाए
पानी का गिलास
कुछ तो हिले बदले कुछ

चिचियाते पक्षी बदलते जाते हैं
इंसानों में
सूरज का रंक्तिम लाल रंग
फैलता जाता है आसमानों में चारो ओर
पर कलियाँ
गुस्‍से में बंद हों जैसे और
फूलों में तब्‍दीली से इनकार हो उन्‍हें...