Pratishtha (चर्चा | योगदान) (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अच्युतानंद मिश्र |संग्रह= }} रात रात भर<br> शब्द <br> रेंगत...) |
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+ | रेंगते रहते हैं मस्तिष्क में | ||
+ | नींद और जागरण की धुंधली दुनिया में | ||
+ | फँसा मैं | ||
+ | रच नहीं पाता कविता | ||
− | + | पक्षियों की कतार | |
− | + | आसमान में गुज़रती जाती है | |
− | + | और चांद | |
− | + | यूँ ही ताकता रहता है धरती को | |
− | + | और दोस्त | |
− | + | लिखते रहते हैं कविता | |
+ | नीली और गुलाबी कापियों पर | ||
− | + | वे भरती जाती हैं | |
− | + | भर जाती हैं एक रात | |
− | + | टूटी हुई नींद और अधूरे सपनों से | |
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− | + | सूरज के अग्निगर्भ में पिघलती रहती है | |
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− | + | मेरी तलहथियों का पसीना | |
+ | सूख जाता है | ||
+ | आंखों में पसर जाती है उदासी | ||
+ | और रात | ||
+ | सुलग रही होती है | ||
+ | मेरे अधूरे सपनों में | ||
+ | सड़े पानी सी | ||
+ | गंधाती रहती हैं स्मृतियाँ | ||
+ | भाप उठती रहती है | ||
− | + | निस्तब्ध शांति है चारों ओर | |
− | + | कि एक पत्ता | |
− | + | भी नहीं खड़कता | |
− | + | जैसे पृथ्वी अचानक भूल गयी हो घूमना | |
− | + | जैसे दुनिया में किसी भूकंप | |
− | + | किसी ज्वालामुखी के फटने | |
− | + | किसी समंदर के उफनने | |
− | + | किसी पहाड़ के ढहने की | |
− | + | कोई आशंका ही ना बची हो | |
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− | + | भय होता है ऐसी शांति से | |
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− | + | कोई बिल्ली ही आए | |
+ | या कोई चूहा गिरा जाए | ||
+ | पानी का गिलास | ||
+ | कुछ तो हिले बदले कुछ | ||
− | + | चिचियाते पक्षी बदलते जाते हैं | |
− | + | इंसानों में | |
− | + | सूरज का रंक्तिम लाल रंग | |
− | + | फैलता जाता है आसमानों में चारो ओर | |
− | + | पर कलियाँ | |
− | चिचियाते | + | गुस्से में बंद हों जैसे और |
− | इंसानों में | + | फूलों में तब्दीली से इनकार हो उन्हें... |
− | सूरज का रंक्तिम लाल रंग | + | </poem> |
− | फैलता जाता है आसमानों में चारो ओर | + | |
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20:44, 16 मार्च 2009 के समय का अवतरण
रात रात भर
शब्द
रेंगते रहते हैं मस्तिष्क में
नींद और जागरण की धुंधली दुनिया में
फँसा मैं
रच नहीं पाता कविता
पक्षियों की कतार
आसमान में गुज़रती जाती है
और चांद
यूँ ही ताकता रहता है धरती को
और दोस्त
लिखते रहते हैं कविता
नीली और गुलाबी कापियों पर
वे भरती जाती हैं
भर जाती हैं एक रात
टूटी हुई नींद और अधूरे सपनों से
सूरज के अग्निगर्भ में पिघलती रहती है
रात
मेरी तलहथियों का पसीना
सूख जाता है
आंखों में पसर जाती है उदासी
और रात
सुलग रही होती है
मेरे अधूरे सपनों में
सड़े पानी सी
गंधाती रहती हैं स्मृतियाँ
भाप उठती रहती है
निस्तब्ध शांति है चारों ओर
कि एक पत्ता
भी नहीं खड़कता
जैसे पृथ्वी अचानक भूल गयी हो घूमना
जैसे दुनिया में किसी भूकंप
किसी ज्वालामुखी के फटने
किसी समंदर के उफनने
किसी पहाड़ के ढहने की
कोई आशंका ही ना बची हो
भय होता है ऐसी शांति से
कोई बिल्ली ही आए
या कोई चूहा गिरा जाए
पानी का गिलास
कुछ तो हिले बदले कुछ
चिचियाते पक्षी बदलते जाते हैं
इंसानों में
सूरज का रंक्तिम लाल रंग
फैलता जाता है आसमानों में चारो ओर
पर कलियाँ
गुस्से में बंद हों जैसे और
फूलों में तब्दीली से इनकार हो उन्हें...