{{KKRachna
|रचनाकार=अनामिका
|संग्रह=दूब-धान / अनामिका
}}
{{KKCatKavita}}<poem>'''(गुरू धोबी सिख कापरा, साबुन सिरजनहार)<br><br>'''
दुनिया के तुडे-मुडे सपनों पर, देखो-<br>कैसे वह चला रही है<br>लाल, गरम इस्तिरी!<br>जब इस शहर में नई आई थी-<br>लगता था, ढूंढ रही है भाषा ऐसी<br>जिससे मिट जाएँगी सब सलवटें दुनिया की!<br>ठेले पर लिए आयरन घूमा करती थी<br>चुपचाप<br>सारे मुहल्ले में।<br>आती वह चार बजे<br>जब सूरज<br>हाथ बाँधकर<br>टेक लेता सर<br>अपनी जंगाई हुई सी<br>उस रिवॉल्विंग कुर्सी पर<br>और धूप लगने लगती<br>एक इत्ता-सा फुँदना-<br>लडकी की लम्बी परांदी का।<br>कई बरस<br>हमारी भाषा के मलबे में ढूंढा-<br>उसके मतलब का<br>कोई शब्द नहीं मिला।<br>चुपचाप सोचती रही देर तक,<br>लगा उसे-<br>इस्तिरी का यह<br>अध सुलगा कोयला ही हो शायद<br>शब्द उसके काम का!<br>जिसको वह नील में डुबाकर लिखती है<br>नम्बर कपडों के<br>वही फिटकिरी उसकी भाषा का नमक बनी।<br>लेकर उजास और खुशबू<br>मुल्तानी मिट्टी और साबुन की बट्टी से,<br>मजबूती पारे से<br>धार और विस्तार<br>अलगनी से<br>उसने<br>एक नई भाषा गढी।<br>धो रही है<br>देखो कैसे लगन और जतन से <br>दुनिया के सब दाग-धब्बे।<br>इसके उस ठेले पर<br>पडी हुई गठरी है<br>
पृथ्वी।
</poem>