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"द्रोण मेघ / राहुल कुमार 'देवव्रत'" के अवतरणों में अंतर

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मुझे फर्क नहीं पड़ता
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सारा खेल नजर का धोखा ही तो है
सरकारी फरमान पर खानापूरी करते
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क्यों नहीं छिटकते रहते इंद्रधनुष के रंग
टीन के शेड
+
हर वक्त आकाश में?
जलती लकडिय़ों की ठंडी पड़ी राख कुरेद कुरेदकर
+
आवरण उतरते ही दीखने लगता है
आग की गर्मी को ढूंढते पाते
+
नीला मटमैला स्याह-सफेद मिश्रित आकाश
मैलै कुचैले लत्तर से स्वयं को ढ़कने का  
+
या कि इस नीले मटमैले जीवन को
अनावश्यक प्रयास करते असक्त बूढ़े को देखकर
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क्षणमात्र के लिये ही सही
कोई स्पंदन नहीं  
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तरंगित करने के संधान का सुफल है ये
एकदम शांत
+
 
कोने में पड़े पुआल के ढ़ेर में  
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आह! है बाधा बड़ी
किसी मड़ियल-सी कुतिया ने जने तो थे छः सात बच्चे
+
 
किंतु दो ही स्तनपान को बचे हैं अब
+
पुराने वक्त की आहट
सहमी-सी लेटी है
+
अन्वेषक की भांति
कभी भी आक्रामक होते नहीं देखा
+
संपूर्ण शरीर में ढूंढ़ ही लेती है सबसे कोमल चमड़ी
तब भी जब सियार ने
+
चलते-चलते पीठ पर जोर की थपकी लगाए
उसके सामने ही झपट लिए थे दो
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...और फ़ना
व्याकुल हुई थी
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सरेराह पकड़ लेती है तेरी छाया
रोई चिल्लाई भी थी
+
मेरे हाथ की छोटी ऊंगली सहसा
उपवास में चली गई थी दो एक दिन
+
पैर से लिपट गति को बांधे साथ-साथ चाहती है चलना
किंतु अब शांत बैठी है  
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चलती भी है  
वहीं कोने में टकटकी लगाए
+
 
आशावान है  
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महत्त्वाकांक्षा के रथ पर आरूढ़ होते ही
उष्मारहित हो चुकी राख से ऊबकर उठेगा वो
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त्यागना होता है वजन सम्बंधों का
तो ही वह जा सकती है वहाँ बच्चों समेत
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सो तूने त्यागे
ट्रेन का इंतजार अभी और करना है
+
नीरस सफर की थकावट से चूर ये बोझिल आंखें
(धुंध की वजह से रोजाना ही लेट रहती है)
+
झेंपती हैं तो शरीर भी शिथिल पड़ता जाता है
(खैर मुझे फर्क नहीं पड़ता)
+
डुबोकर छुपे बैठे हैं सीने को आस्तीन बनाए
हाँ कल की मीटिंग की थोड़ी चिंता है
+
टूटे ख्वाब और बेतरतीब नोकदार टुकड़े सीसे के
दिसम्बर के आसपास
+
सहज होते ही बोध करा जाते
अक्सर ही ट्रेनें लेट हो जाती हैं
+
कि तेरा असहज रहना ही तेरा प्रारब्ध है  
कई सारे शेड बने हैं प्लेटफार्म पर इन दिनों
+
तिसपर बिजली-सी कौंध जाती हैं
किंतु ये वाला मेरा पसंदीदा है
+
पटल पर तेरी नीमबाज़ आंखें
यहाँ कोई भद्रजन कभी नहीं बैठता
+
भय और पीड़ा की सीमा लांघते
कंगला कुतिया और कभी-कभी मैं
+
ये नासपीटे अब और क्या चाहते हैं मुझसे?  
बहुत थोड़ा-सा फर्क इसलिए है कि
+
 
मेरे पास हैं कपड़े जूते
+
इन समवेत आक्रमणों से लड़ते चलना है
मोबाइल और पावरबैंक भी
+
भीतर-ही-भीतर कई दफे ...रोजाना
रम की छोटी बोतल से दो घूंट गटक
+
टुटन की कोई अहमियत नहीं  
सिगरेट जला ली है मैंने
+
पता है मुझे
उंगलियाँ बड़ी फास्ट हैं मेरी स्क्रीन पर
+
झंडे तैयार खड़े रखे हैं कोने में
अनलॉक होते ही
+
दिन निकलने को है
सर्र से चली जाती है न्यूजडेस्क पर
+
अलविदा!
जहाँ जारी रहती है बहस हमेशा इन दिनों
+
चलो! चलते हैं फिर से नए मोर्चे पर
प्रधानमंत्री के दावों
+
और दावों की हवा निकालते विपक्ष के बीच
+
गरमागरम गालियाँ
+
घुप्प अंधेरे को चीरती
+
स्क्रीन से निकलती रोशनी
+
और ऊबकाई से थका थका-सा मैं
+
हरा कैसे होऊँ?
+
अचानक से पास करती है थ्रू गाड़ी रपारप
+
सन्नाटे को चूर
+
धूल और हवा के अनियंत्रित बवंडर हिलोरती
+
छुक छुक और क्रां-क्रां का नाद करती
+
इस धड़धड़ाहट में
+
क्यों समझ नहीं पाया मैं
+
किकियाती कुतिया की आवाज?  
+
रात का सन्नाटा
+
सिर्फ आराम के लिए नहीं होता
+
शिकारी के लिए स्निग्ध आमंत्रण भी तो है
+
झाड़ियों की सुगबुगाहट
+
और मद्धम पड़ती चीख को
+
गर्दन ऊँची कर छटपटाते हुए
+
देखने के सिवाय कोई विकल्प नहीं है उसके पास
+
कातर भाव से
+
पूंछ हिला हिलाकर ताकती है मेरी तरफ
+
स्क्रीन पर जारी है
+
महान बहस भ्रष्टाचार को लेकर
+
मैं कंगला और कुतिया
+
खामोश बैठे हैं शेड में
+
अपने एकमात्र बचे बच्चे को
+
जीभ से चाटकर
+
स्वयं को सांत्वना देती
+
अपने बच्चे में "तुम सुरक्षित हो मेरे रहते"
+
का भ्रम पैदा करती माँ को देख रहा हूँ मैं
+
भ्रष्टाचार का मतलब सिर्फ़
+
वित्तीय गड़बडिय़ां ही नहीं होती
+
इतनी नैतिकता को कौन सुने?
+
क्योंकि यह देश बदल रहा है
+
और दिल्ली में क्रांति जारी है
+
 
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18:38, 12 मई 2018 के समय का अवतरण

सारा खेल नजर का धोखा ही तो है
क्यों नहीं छिटकते रहते इंद्रधनुष के रंग
हर वक्त आकाश में?
आवरण उतरते ही दीखने लगता है
नीला मटमैला स्याह-सफेद मिश्रित आकाश
या कि इस नीले मटमैले जीवन को
क्षणमात्र के लिये ही सही
तरंगित करने के संधान का सुफल है ये

आह! है बाधा बड़ी

पुराने वक्त की आहट
अन्वेषक की भांति
संपूर्ण शरीर में ढूंढ़ ही लेती है सबसे कोमल चमड़ी
चलते-चलते पीठ पर जोर की थपकी लगाए
...और फ़ना
सरेराह पकड़ लेती है तेरी छाया
मेरे हाथ की छोटी ऊंगली सहसा
पैर से लिपट गति को बांधे साथ-साथ चाहती है चलना
चलती भी है

महत्त्वाकांक्षा के रथ पर आरूढ़ होते ही
त्यागना होता है वजन सम्बंधों का
सो तूने त्यागे
नीरस सफर की थकावट से चूर ये बोझिल आंखें
झेंपती हैं तो शरीर भी शिथिल पड़ता जाता है
डुबोकर छुपे बैठे हैं सीने को आस्तीन बनाए
टूटे ख्वाब और बेतरतीब नोकदार टुकड़े सीसे के
सहज होते ही बोध करा जाते
कि तेरा असहज रहना ही तेरा प्रारब्ध है
तिसपर बिजली-सी कौंध जाती हैं
पटल पर तेरी नीमबाज़ आंखें
भय और पीड़ा की सीमा लांघते
ये नासपीटे अब और क्या चाहते हैं मुझसे?

इन समवेत आक्रमणों से लड़ते चलना है
भीतर-ही-भीतर कई दफे ...रोजाना
टुटन की कोई अहमियत नहीं
पता है मुझे
झंडे तैयार खड़े रखे हैं कोने में
दिन निकलने को है
अलविदा!
चलो! चलते हैं फिर से नए मोर्चे पर