"चेतना / नई चेतना / महेन्द्र भटनागर" के अवतरणों में अंतर
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हर दिशा में जल उठी ज्वाला नयी, | हर दिशा में जल उठी ज्वाला नयी, | ||
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लालिमा जीवन-जगत पर छा गयी ! | लालिमा जीवन-जगत पर छा गयी ! | ||
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है नयी पदचाप से गुंजित मही, | है नयी पदचाप से गुंजित मही, | ||
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ज्योति अभिनव हर किरण बिखरा रही ! | ज्योति अभिनव हर किरण बिखरा रही ! | ||
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छिन्न सदियों का अंधेरा हो गया, | छिन्न सदियों का अंधेरा हो गया, | ||
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राह पर जगमग सबेरा है नया ! | राह पर जगमग सबेरा है नया ! | ||
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यह विगत युग का न कोई साज़ है, | यह विगत युग का न कोई साज़ है, | ||
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रूप ही बदला धरा ने आज है ! | रूप ही बदला धरा ने आज है ! | ||
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वर्ग-भेदों को मिटाने चेतना | वर्ग-भेदों को मिटाने चेतना | ||
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कर रही सामान्य की आराधना ! | कर रही सामान्य की आराधना ! | ||
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काल बदला और बदली सभ्यता, | काल बदला और बदली सभ्यता, | ||
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दे रही नव फूल संस्कृति की लता ! | दे रही नव फूल संस्कृति की लता ! | ||
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फूल वे जिनमें मधुर सौरभ भरा, | फूल वे जिनमें मधुर सौरभ भरा, | ||
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मुसकराती पा जिन्हें भू-उर्वरा ! | मुसकराती पा जिन्हें भू-उर्वरा ! | ||
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स्वार्थ, शोषण की इमारत ढह रही, | स्वार्थ, शोषण की इमारत ढह रही, | ||
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भग्न ढूहों पर सृजन-सरि बह रही ! | भग्न ढूहों पर सृजन-सरि बह रही ! | ||
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शीत के लघु-ताप से सिकुड़े हुओं, | शीत के लघु-ताप से सिकुड़े हुओं, | ||
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पास आता जा रहा 'क्यूरो सिवो' ! | पास आता जा रहा 'क्यूरो सिवो' ! | ||
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धूप से झुलसे हुए 'होरी' कृषक | धूप से झुलसे हुए 'होरी' कृषक | ||
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आ रही 'जल की हवा' जीवन-जनक ! | आ रही 'जल की हवा' जीवन-जनक ! | ||
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उर लगाले जीर्ण 'धनिया'-देह को | उर लगाले जीर्ण 'धनिया'-देह को | ||
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(रोक ले रे ! छलछलाते स्नेह को !) | (रोक ले रे ! छलछलाते स्नेह को !) | ||
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आज तो आकाश अपना हो गया, | आज तो आकाश अपना हो गया, | ||
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आदमी का, सत्य सपना हो गया ! | आदमी का, सत्य सपना हो गया ! | ||
− | 1948 | + | '''रचनाकाल: 1948 |
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14:19, 29 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण
हर दिशा में जल उठी ज्वाला नयी,
लालिमा जीवन-जगत पर छा गयी !
है नयी पदचाप से गुंजित मही,
ज्योति अभिनव हर किरण बिखरा रही !
छिन्न सदियों का अंधेरा हो गया,
राह पर जगमग सबेरा है नया !
यह विगत युग का न कोई साज़ है,
रूप ही बदला धरा ने आज है !
वर्ग-भेदों को मिटाने चेतना
कर रही सामान्य की आराधना !
काल बदला और बदली सभ्यता,
दे रही नव फूल संस्कृति की लता !
फूल वे जिनमें मधुर सौरभ भरा,
मुसकराती पा जिन्हें भू-उर्वरा !
स्वार्थ, शोषण की इमारत ढह रही,
भग्न ढूहों पर सृजन-सरि बह रही !
शीत के लघु-ताप से सिकुड़े हुओं,
पास आता जा रहा 'क्यूरो सिवो' !
धूप से झुलसे हुए 'होरी' कृषक
आ रही 'जल की हवा' जीवन-जनक !
उर लगाले जीर्ण 'धनिया'-देह को
(रोक ले रे ! छलछलाते स्नेह को !)
आज तो आकाश अपना हो गया,
आदमी का, सत्य सपना हो गया !
रचनाकाल: 1948