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"मेरी माँ / अजित कुमार" के अवतरणों में अंतर

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वे हर मंदिर के पट पर अर्घ्य चढ़ाती थीं
 
वे हर मंदिर के पट पर अर्घ्य चढ़ाती थीं
 
 
तो भी कहती थीं-
 
तो भी कहती थीं-
 
 
'भगवान एक पर मेरा है।'
 
'भगवान एक पर मेरा है।'
 
 
इतने वर्षों की मेरी उलझन
 
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अभी तक तो सुलझी नहीं कि-
 
अभी तक तो सुलझी नहीं कि-
 
 
था यदि वह कोई तो आख़िर कौन था?
 
था यदि वह कोई तो आख़िर कौन था?
 
  
 
रहस्यवादी अमूर्तन? कि
 
रहस्यवादी अमूर्तन? कि
 
 
छायावादी विडंबना? आत्मगोपन?
 
छायावादी विडंबना? आत्मगोपन?
 
 
या विरुद्धों के बीच सामंजस्य बिठाने का
 
या विरुद्धों के बीच सामंजस्य बिठाने का
 
 
यत्न करता एक चतुर कथन?
 
यत्न करता एक चतुर कथन?
 
  
 
'प्राण, तुम दूर भी, प्राण तुम पास भी!
 
'प्राण, तुम दूर भी, प्राण तुम पास भी!
 
 
प्राण तुम मुक्ति भी, प्राण तुम पाश भी।'
 
प्राण तुम मुक्ति भी, प्राण तुम पाश भी।'
 
 
उस युग के कवियों की
 
उस युग के कवियों की
 
 
यही तो परिचित मुद्रा थी
 
यही तो परिचित मुद्रा थी
 
 
जिसे बाद की पीढ़ी ने
 
जिसे बाद की पीढ़ी ने
 
 
शब्द-जाल भर बता खारिज कर दिया...!
 
शब्द-जाल भर बता खारिज कर दिया...!
 
  
 
कौन जाने,
 
कौन जाने,
 
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मारा ध्यान कभी इस ओर भी जाए
हमारा ध्यान कभी इस ओर भी जाए
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कुछ सच्चाइयाँ शायद वे भी हो सकती हैं
 
कुछ सच्चाइयाँ शायद वे भी हो सकती हैं
 
 
जो ऐसी ही किन्हीं
 
जो ऐसी ही किन्हीं
 
 
भूल-भुलइयों में से गुज़रती हुई
 
भूल-भुलइयों में से गुज़रती हुई
 
 
हमारे दिल-दिमाग पर दस्तक देने बार-बार आएँ।
 
हमारे दिल-दिमाग पर दस्तक देने बार-बार आएँ।
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01:41, 20 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण

वे हर मंदिर के पट पर अर्घ्य चढ़ाती थीं
तो भी कहती थीं-
'भगवान एक पर मेरा है।'
इतने वर्षों की मेरी उलझन
अभी तक तो सुलझी नहीं कि-
था यदि वह कोई तो आख़िर कौन था?

रहस्यवादी अमूर्तन? कि
छायावादी विडंबना? आत्मगोपन?
या विरुद्धों के बीच सामंजस्य बिठाने का
यत्न करता एक चतुर कथन?

'प्राण, तुम दूर भी, प्राण तुम पास भी!
प्राण तुम मुक्ति भी, प्राण तुम पाश भी।'
उस युग के कवियों की
यही तो परिचित मुद्रा थी
जिसे बाद की पीढ़ी ने
शब्द-जाल भर बता खारिज कर दिया...!

कौन जाने,
मारा ध्यान कभी इस ओर भी जाए
कुछ सच्चाइयाँ शायद वे भी हो सकती हैं
जो ऐसी ही किन्हीं
भूल-भुलइयों में से गुज़रती हुई
हमारे दिल-दिमाग पर दस्तक देने बार-बार आएँ।