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काम हैं जितने उतने इलजाम भी हैं
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फूटती सुबहें हैं तो ढलती शाम भी है
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भर छाती धँसकर जीता हूँ जीवन
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कभी ये नियति देती उछाल भी हैं
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जाने...
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फैज इधर हैं उधर खय्याम भी हैं
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लहरों पर पीठ टेके होता आराम भी है
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खट-खट कर कैसे राह बनाता हूँ थोड़ी
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जानता हूँ आगे बैठा भूचाल भी है
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जाने...
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'''(रचनाकाल :दिल्ली,1997)

19:34, 5 अगस्त 2008 के समय का अवतरण

जाने जीवन में क्यों हैं जंजाल इतने

दूर हो तुझ से बीतेंगे साल कितने


काम हैं जितने उतने इलजाम भी हैं

फूटती सुबहें हैं तो ढलती शाम भी है

भर छाती धँसकर जीता हूँ जीवन

कभी ये नियति देती उछाल भी हैं


जाने...


फैज इधर हैं उधर खय्याम भी हैं

लहरों पर पीठ टेके होता आराम भी है

खट-खट कर कैसे राह बनाता हूँ थोड़ी

जानता हूँ आगे बैठा भूचाल भी है


जाने...


(रचनाकाल :दिल्ली,1997)