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अतिचार / महेन्द्र भटनागर

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दर्द समेटे बैठा हूँअर्थहीन हो जाता है <br>सहसा <br>चिर-संबंधें का विश्वास _ <br>नहीं, जन्म-जन्मान्तर का विश्वास! <br>रेअरे, कितनाक्षण-कितना भर में <br>दु:ख समेटे बैठा हूँ! मिट जाता है <br>बरसोंवर्षों-बरसों वर्षों का दुख-दर्द होता घनीभूत <br>समेटे बैठा हूँअपनेपन का अहसास! <br>रातोंताश के पत्तों जैसा <br>बाँध टूटता है जब <br>मर्यादा का, <br>स्वनिर्मित सीमाओं को<br>आवेष्टित करते विद्युत-रातों जागाप्रवाह-युक्त तार<br>तब बन जाते हैं<br>निर्जीव अचानक! <br>लुप्त हो जाती हैं सीमाएँ, <br>दिनछलाँग भर-दिन भर जागाफाँद जाते हैं<br>स्थिर पैर, <br>सारे जीवन जागाडगमगाते काँपते हुए <br>स्थिर पैर! <br>तन पर भूरी-भूरी गर्द भंग हो जाती है<br>लपेटे बैठा हूँशुद्व उपासना<br>कठिन सिद्व साधना! <br>दलदलधर्म-दलदल विहित कर्म<br>पाँव धँसे खोखले हो जाते हैं, <br>गर्दन पर, टख़नों पर तथाकथित सत्य प्रतिज्ञाएँ<br>नाग कसे झुठलाती हैं।<br>बेमानी हो जाते हैं, <br>कालेवचन-काले ज़हरीले वायदे! <br>नाग कसे हैंऔर _<br>प्यार बन जाता है<br>निपट स्वार्थ का समानार्थक! <br>शैया पर अभिप्राय बदल लेती हैं<br>आग बिछाए बैठा हूँव्याख्याएँ<br>पाप-पुण्य की, <br>छल _<br>आत्माओं के मिलाप का<br>नग्न सत्य में / यथार्थ रूप में<br>उतर आता है! <br>धायँसंयम के लौह-धायँस्तम्भ<br>टूट ढह जाते हैं, <br>विवेक के शहतीर स्थान-च्युत हो<br>तिनके की तरह<br>डूब बह जाते हैं।<br>जब भूकम्प वासना का<br>'तीव्रानुराग' का<br>आमूल थरथरा देता है शरीर को, <br>हिल जाती हैं मन की<br>हर पुख्ता-पुख्ता चूल! <br>दहकाए बैठा हूँआदमी<br>अपने अतीत को, वर्तमान को, भविष्य को<br>जाता है भूल!