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दरवाज़ा / कविता भट्ट

1,754 bytes added, 03:45, 14 सितम्बर 2018
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सूरज निकलते हीकभी खुलता थापहाड़ी की ओरजो बन्द '''दरवाज़ा''' साथी दरवाज़े सेसिसकते हुए बोला-'बन्धु! सुनो तो !क्या है अनुमान तुम्हारा ?हमें फिर से क्याकोई आकर खोलेगाघर की दीवारों से क्या अब कोई बोलेगा!'इस पर कई वर्षों सेपलायन के कारण बन्द पड़ी एक खिड़कीअपनी सखी खिड़की की सूनी आँखों में झाँककरअँधेरे में सुबकती रोने लगी-इतने में भोर होने लगीदरवाज़े भी चुपचाप हैंखिड़कियाँ भी हैं उदासखुलने की नहीं बची आसमगर सच कहूँ? न जाने क्योंइन सबको है हवा पर विश्वास, लगता है; सुनेगी सिसकियाँपगडंडियों से उतरती हवापलटेगी रुख शायद अबधक्का देकर चरमराते हुएपहाड़ी की ओर फिर सेखुलेगा- बन्द पड़ा दरवाजाचरमराहट के संगीत परझूमेंगी फिर से खिड़कियाँघाटी में गूँजेंगी स्वर -लहरियाँ
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