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"आज अचानक / तारादेवी पांडेय" के अवतरणों में अंतर

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जो कह न सकूँ मैं तुमसे, उसको चित्रित कर दोगे?
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आज अचानक मुझे आ गयी, अपनी प्रिय माता की याद।
ओ चित्रकार क्या मुझको, ऐसी छवि दिखला दोगे?
+
निकल पड़े मेरी आँखों से, अविरल आँसू उसके बाद॥
चिर वियोगिनी है आती, पथ पर मोती बरसाती।
+
मानो कोई यह कहता हो, अब न मिलेगी प्यारी माता।
तारों के दीप जलाती, कुछ रोती कुछ-कुछ गाती॥
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इसीलिए तो आज मुझे अब, और नहीं है कुछ भी भाता॥
उसके भीगे गालों को, तुम भी क्या देख सकोगे?
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ओ चित्रकार, क्या मुझको, ऐसी छवि दिखला दोगे?
+
  
निर्जनता होवे मग में, बाला हो अस्थिर चंचल।
+
वह होती इस समय यहाँ, तो करती मेरा बहुत दुलार।
हो तेज़ हृदय की धड़कन, हिलता हो जिससे अंचल॥
+
मैं थी उसकी सुता लाड़िली, हाय लुट गया मेरा प्यार॥
करुणा की उस चितवन को, पद पर अंकित कर दोगे?
+
मैया! जब से होश सँभाला, देख नहीं मैं पायी तुझको।
ओ चित्रकार, क्या मुझको, ऐसी छवि दिखला दोगे?
+
मन में उठता प्रश्न यही है, छोड़ दिया क्यों तूने मुझको॥
  
तारों की ज्योति मलिन हो, प्राचाी नभ उज्ज्वल तर हो।
+
सुनती हूँ जब शब्द किसी के, मुख से मैं मेरी प्रिय माता।
ऊषा सिन्दूर लगाती हो प्रात मधुर सुखकर हो॥
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प्यारी माता कहने को हा! मेरा भी है जी ललचाता॥
इस शान्त दृश्य को पावन, कैसे बन्दी कर लोगे?
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क्या अपराध किया था मैंने, त्याग दिया जो तूने मुझको।
ओ चित्रकार, क्या मुझको, ऐसी छवि दिखला दोगे?
+
सोच तनिक तो अपने मेन में; यही उचित क्या था माँ, तुझको॥
  
भोले-भाले से आँसू, तारों की होड़ लगाते।
+
त्याग किया जब मेरा तूने, तनिक न आया था क्या ख्याल।
अपनी उस उज्ज्वलता का, भी दर्शन करवा जाते॥
+
हाय, सोच क्यों लिया न मन में, होवेगा क्या इसका हाल॥
उसके रहस्यमय जीवन का, भेद मुझे कह दोगे?
+
यद्यपि पितृ-पदों का मुझको, मिला यथोचित शुद्ध सनेह।
 +
बिना मातृ ममता के वह भी, उतना नहीं मोद का गेह॥
  
फिर बहुत दूर पर धँधली-सी, छाया एक दिखाना।
+
मन में सोचो, मुझे छोड़कर, हाथ तुम्हारे क्या आया।
वे प्रिय आते ही होंगे, ऐसा कुछ भाव बनाना॥
+
जननी होकर, जनकर मुझको, क्यों नाहक ही तलफाया॥
उन बड़ी-बड़ी आँखों से, आँसू भी ढलका दोगे?
+
माता होती तो क्या होता, यह अभिलाषा रहती है।
ओ चित्रकार, क्या मुझको, ऐसी छवि दिखला दोगे?
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मन कहता है, वृथा हाय! क्यों, इस प्रकार दुख सहती है॥
  
बस अन्तिम दृश्य बनाना, दोनों का मिलन दिखाना।
+
हा! हा! कितने प्यारे बच्चे, मातृ-स्नेह से वंचित होंगे।
उनकी मीठी सिसकी से, तुम कभी सिसक मत जाना॥
+
होंगे जो अज्ञात उन्हें तो, दुख ही सारे संचित होंगे॥
क्या सचमुच ऐसा सुन्दर, वह चित्र पूर्ण कर दोगे?
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जिनको होगा ज्ञान ज़रा भी, पाते क्लेश दुखी वे होंगे।
ओ चित्रकार, क्या मुझको, ऐसी छवि दिखला दोगे?
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करते होंगे याद निरंतर, समझ-समझकर रोते होंगे॥
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यद्यपि ‘मा’ के सुख से वंचित, और न माता का है ध्यान।
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तो भी यही लालसा मन में वारूँ उस पर तन मन प्रान॥
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नहीं तुम्हें मैंने देखा है, देखा चित्र तुम्हारा है।
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इसी लिए तो आज बह रही, सतत स्नेह की धारा है॥
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मन में उमड़े स्रोत प्रेम का, कभी न मुख से प्रकट कहे।
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प्रेम उसी को कहते हैं जो, बसे दूर या निकट रहे॥
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जो कुछ अनुचित बातें कह दीं, उन्हें ध्यान में मत लाना।
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कभी-कभी हे अंव! स्वप्न में, अपने दर्शन दे जारा॥
  
 
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06:52, 29 दिसम्बर 2018 के समय का अवतरण


आज अचानक मुझे आ गयी, अपनी प्रिय माता की याद।
निकल पड़े मेरी आँखों से, अविरल आँसू उसके बाद॥
मानो कोई यह कहता हो, अब न मिलेगी प्यारी माता।
इसीलिए तो आज मुझे अब, और नहीं है कुछ भी भाता॥

वह होती इस समय यहाँ, तो करती मेरा बहुत दुलार।
मैं थी उसकी सुता लाड़िली, हाय लुट गया मेरा प्यार॥
मैया! जब से होश सँभाला, देख नहीं मैं पायी तुझको।
मन में उठता प्रश्न यही है, छोड़ दिया क्यों तूने मुझको॥

सुनती हूँ जब शब्द किसी के, मुख से मैं मेरी प्रिय माता।
प्यारी माता कहने को हा! मेरा भी है जी ललचाता॥
क्या अपराध किया था मैंने, त्याग दिया जो तूने मुझको।
सोच तनिक तो अपने मेन में; यही उचित क्या था माँ, तुझको॥

त्याग किया जब मेरा तूने, तनिक न आया था क्या ख्याल।
हाय, सोच क्यों लिया न मन में, होवेगा क्या इसका हाल॥
यद्यपि पितृ-पदों का मुझको, मिला यथोचित शुद्ध सनेह।
बिना मातृ ममता के वह भी, उतना नहीं मोद का गेह॥

मन में सोचो, मुझे छोड़कर, हाथ तुम्हारे क्या आया।
जननी होकर, जनकर मुझको, क्यों नाहक ही तलफाया॥
माता होती तो क्या होता, यह अभिलाषा रहती है।
मन कहता है, वृथा हाय! क्यों, इस प्रकार दुख सहती है॥

हा! हा! कितने प्यारे बच्चे, मातृ-स्नेह से वंचित होंगे।
होंगे जो अज्ञात उन्हें तो, दुख ही सारे संचित होंगे॥
जिनको होगा ज्ञान ज़रा भी, पाते क्लेश दुखी वे होंगे।
करते होंगे याद निरंतर, समझ-समझकर रोते होंगे॥

यद्यपि ‘मा’ के सुख से वंचित, और न माता का है ध्यान।
तो भी यही लालसा मन में वारूँ उस पर तन मन प्रान॥
नहीं तुम्हें मैंने देखा है, देखा चित्र तुम्हारा है।
इसी लिए तो आज बह रही, सतत स्नेह की धारा है॥

मन में उमड़े स्रोत प्रेम का, कभी न मुख से प्रकट कहे।
प्रेम उसी को कहते हैं जो, बसे दूर या निकट रहे॥
जो कुछ अनुचित बातें कह दीं, उन्हें ध्यान में मत लाना।
कभी-कभी हे अंव! स्वप्न में, अपने दर्शन दे जारा॥