भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"सार्थकता / मृत्यु-बोध / महेन्द्र भटनागर" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेन्द्र भटनागर |संग्रह=मृत्यु-बोध / महेन्द्र भटनागर }}...) |
Pratishtha (चर्चा | योगदान) |
||
(एक अन्य सदस्य द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 4: | पंक्ति 4: | ||
|संग्रह=मृत्यु-बोध / महेन्द्र भटनागर | |संग्रह=मृत्यु-बोध / महेन्द्र भटनागर | ||
}} | }} | ||
+ | {{KKAnthologyDeath}} | ||
+ | {{KKCatKavita}} | ||
+ | <poem> | ||
जीना-भर | जीना-भर | ||
− | |||
जीवन-सार्थकता का | जीवन-सार्थकता का | ||
− | |||
नहीं प्रमाण, | नहीं प्रमाण, | ||
− | |||
जीना — | जीना — | ||
− | |||
मात्र विवशता | मात्र विवशता | ||
− | |||
जैसे - मृत्यु ..... प्रयाण। | जैसे - मृत्यु ..... प्रयाण। | ||
− | |||
− | |||
जो स्वाभाविक | जो स्वाभाविक | ||
− | |||
उसके धारण में | उसके धारण में | ||
− | |||
कोई वैशिष्ट्य नहीं, | कोई वैशिष्ट्य नहीं, | ||
− | |||
संज्ञा | संज्ञा | ||
− | |||
प्राणी होना मात्र | प्राणी होना मात्र | ||
− | |||
मनुष्य नहीं। | मनुष्य नहीं। | ||
− | |||
− | |||
मानव - महिमा का | मानव - महिमा का | ||
− | |||
उद्घोष तभी, | उद्घोष तभी, | ||
− | |||
मन में हो | मन में हो | ||
− | |||
सच्चा तोष तभी — | सच्चा तोष तभी — | ||
− | |||
जब हम जीवन को | जब हम जीवन को | ||
− | |||
अभिनव अर्थ प्रदान करें, | अभिनव अर्थ प्रदान करें, | ||
− | |||
भरे अँधेरे में | भरे अँधेरे में | ||
− | |||
नव - नव ज्योतिर्लोकों का | नव - नव ज्योतिर्लोकों का | ||
− | |||
संधान करें। | संधान करें। | ||
− | |||
− | |||
− | |||
सृष्टि-रहस्यों को ज्ञात करें, | सृष्टि-रहस्यों को ज्ञात करें, | ||
− | |||
चाँद-सितारों से बात करें। | चाँद-सितारों से बात करें। | ||
− | |||
परमार्थ | परमार्थ | ||
− | |||
हमारे जीने का लक्ष्य बने, | हमारे जीने का लक्ष्य बने, | ||
− | |||
हर भौतिक संकट | हर भौतिक संकट | ||
− | |||
पग-पग पर भक्ष्य बने। | पग-पग पर भक्ष्य बने। | ||
− | |||
− | |||
इतनी क्षमताएँ | इतनी क्षमताएँ | ||
− | |||
अर्जित हों, | अर्जित हों, | ||
− | |||
फिर, | फिर, | ||
− | |||
प्राण भले ही | प्राण भले ही | ||
− | |||
मृत्यु समर्पित हों, | मृत्यु समर्पित हों, | ||
− | |||
− | |||
कोई ग्लानि नहीं, | कोई ग्लानि नहीं, | ||
− | |||
कोई खेद नहीं, | कोई खेद नहीं, | ||
− | |||
इसमें | इसमें | ||
− | |||
किंचित मतभेद नहीं, | किंचित मतभेद नहीं, | ||
− | |||
− | |||
जीवन सफल यही | जीवन सफल यही | ||
− | |||
जीवन विरल यही | जीवन विरल यही | ||
− | |||
धन्य मही ! | धन्य मही ! | ||
+ | </poem> |
01:44, 6 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण
जीना-भर
जीवन-सार्थकता का
नहीं प्रमाण,
जीना —
मात्र विवशता
जैसे - मृत्यु ..... प्रयाण।
जो स्वाभाविक
उसके धारण में
कोई वैशिष्ट्य नहीं,
संज्ञा
प्राणी होना मात्र
मनुष्य नहीं।
मानव - महिमा का
उद्घोष तभी,
मन में हो
सच्चा तोष तभी —
जब हम जीवन को
अभिनव अर्थ प्रदान करें,
भरे अँधेरे में
नव - नव ज्योतिर्लोकों का
संधान करें।
सृष्टि-रहस्यों को ज्ञात करें,
चाँद-सितारों से बात करें।
परमार्थ
हमारे जीने का लक्ष्य बने,
हर भौतिक संकट
पग-पग पर भक्ष्य बने।
इतनी क्षमताएँ
अर्जित हों,
फिर,
प्राण भले ही
मृत्यु समर्पित हों,
कोई ग्लानि नहीं,
कोई खेद नहीं,
इसमें
किंचित मतभेद नहीं,
जीवन सफल यही
जीवन विरल यही
धन्य मही !