"बहुत हो चुका / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’" के अवतरणों में अंतर
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' }} {{KKCatKavita...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
|||
(इसी सदस्य द्वारा किये गये बीच के 3 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 26: | पंक्ति 26: | ||
कितना हुआ हमको मलाल पूछते हैं। | कितना हुआ हमको मलाल पूछते हैं। | ||
5 | 5 | ||
+ | जग की सब नफ़रत मैं ले लूँ, तुमको केवल प्यार मिले। | ||
+ | हम तो पतझर के वासी हैं,तुमको सदा बहार मिले। | ||
+ | सफ़र हुआ अपना तो पूरा,चलते-चलते शाम हुई | ||
+ | तुझको हर दिन सुबह मिले,नील गगन-सा प्यार मिले। | ||
+ | 6 | ||
'''खुद से रही है शिकायत हमारी''' | '''खुद से रही है शिकायत हमारी''' | ||
'''किसी से रही न अदावत हमारी''' | '''किसी से रही न अदावत हमारी''' | ||
'''बहुत हो चुका अब चलना पड़ेगा''' | '''बहुत हो चुका अब चलना पड़ेगा''' | ||
'''माफ़ करना तुम हर आदत हमारी।''' | '''माफ़ करना तुम हर आदत हमारी।''' | ||
+ | 7 | ||
+ | '''भूले ही नहीं जब ,तो कैसे तुम्हारी याद आती।''' | ||
+ | '''सूखे नहीं हैं अश्क ,कैसे हरपल हमको रुलाती।''' | ||
+ | '''आज वक़्त ने सजाए-मौत जीते जी दी है हमें''' | ||
+ | '''चले भी आओ मेरे प्राण ,रुह तुमको ही बुलाती।''' | ||
+ | 8 | ||
+ | जितना उसने था दुत्कारा, उतना पास तुम्हारे आया। | ||
+ | आरोपों की झड़ी लगाकर ,पास तुम्हारे ही पहुँचाया। | ||
+ | मन था जो गंगा -सा निर्मल,उसने समझा कलुष नदी-सा | ||
+ | कभी न मन में भाव रहा जो,उसने जो आरोप लगाया। | ||
+ | 9 | ||
+ | कहाँ खो गए आज प्रियवर,करके प्राणों का संचार। | ||
+ | फिर लौटा दो दिवस पुराने,पहना दो बाहों का हार। | ||
+ | कण्टक पथ है, टूटा रथ है,मन के अश्व घायल ,हारे | ||
+ | हाथ पकड़ लो अब तो मेरा, हो तुम ही मन का उजियार। | ||
+ | |||
-0- | -0- | ||
<poem> | <poem> |
22:04, 15 अप्रैल 2019 के समय का अवतरण
1
आग पर तुम हर एक किताब रखना
आँसुओं का भी सदा हिसाब रखना।
जलाकरके पन्ने जलना तुम्हें भी
याद इतना पाठ अब जनाब रखना।
2
विषधरों के बीच बीती है ज़िन्दगी
टूटे घट -जैसी रीती है ज़िन्दगी
घाव हुए हज़ारों और हम अकेले
बोलो फिर कैसे ये सीती ज़िन्दगी।
3
उम्मीदों की बगिया मुरझाने लगी है
किस्मत भी अब तो आग लगाने लगी है
जीने की इच्छा अब मन में नहीं बाकी
मौत आकरके पंजा लड़ाने लगी है।
4
दग़ा देने वाले सवाल पूछते हैं
पिलाकरके ज़हर फिर हाल पूछते हैं
चन्दन -सी ज़िन्दगी सब राख कर डाली
कितना हुआ हमको मलाल पूछते हैं।
5
जग की सब नफ़रत मैं ले लूँ, तुमको केवल प्यार मिले।
हम तो पतझर के वासी हैं,तुमको सदा बहार मिले।
सफ़र हुआ अपना तो पूरा,चलते-चलते शाम हुई
तुझको हर दिन सुबह मिले,नील गगन-सा प्यार मिले।
6
खुद से रही है शिकायत हमारी
किसी से रही न अदावत हमारी
बहुत हो चुका अब चलना पड़ेगा
माफ़ करना तुम हर आदत हमारी।
7
भूले ही नहीं जब ,तो कैसे तुम्हारी याद आती।
सूखे नहीं हैं अश्क ,कैसे हरपल हमको रुलाती।
आज वक़्त ने सजाए-मौत जीते जी दी है हमें
चले भी आओ मेरे प्राण ,रुह तुमको ही बुलाती।
8
जितना उसने था दुत्कारा, उतना पास तुम्हारे आया।
आरोपों की झड़ी लगाकर ,पास तुम्हारे ही पहुँचाया।
मन था जो गंगा -सा निर्मल,उसने समझा कलुष नदी-सा
कभी न मन में भाव रहा जो,उसने जो आरोप लगाया।
9
कहाँ खो गए आज प्रियवर,करके प्राणों का संचार।
फिर लौटा दो दिवस पुराने,पहना दो बाहों का हार।
कण्टक पथ है, टूटा रथ है,मन के अश्व घायल ,हारे
हाथ पकड़ लो अब तो मेरा, हो तुम ही मन का उजियार।
-0-