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"राह देखते हम / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’" के अवतरणों में अंतर
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कटता जाए शीश | कटता जाए शीश | ||
यहाँ हज़ारों बार, | यहाँ हज़ारों बार, | ||
− | आहें नहीं | + | आहें भी नहीं |
निकली मुँह से भी | निकली मुँह से भी | ||
चूकते नहीं वार। | चूकते नहीं वार। | ||
+ | 65 | ||
+ | '''सांध्य गगन''' | ||
+ | '''या उतरा आँगन''' | ||
+ | '''कुसुमित यौवन,''' | ||
+ | '''रूप तुम्हारा''' | ||
+ | '''बहता छल-छल''' | ||
+ | '''ज्यों निर्झर चंचल'''। | ||
+ | 66 | ||
+ | अधर खिले | ||
+ | पिया मदिर मधु | ||
+ | जगे जड़-चेतन, | ||
+ | अँगड़ाई ले | ||
+ | बहा मन्द पवन | ||
+ | सिंचित तन-मन। | ||
+ | 67 | ||
+ | नीलम नभ | ||
+ | धुँआँ पीकर मरा | ||
+ | साँस-साँस अटकी | ||
+ | हम न जागे | ||
+ | हरित वसुंधरा | ||
+ | द्रौपदी बना लूटी। | ||
+ | </poem> |
16:38, 2 दिसम्बर 2019 के समय का अवतरण
62
तय किया था
हमने मिलकर
फूलों -सा खिलकर,
जुदा न होंगे
भूल गए हो तुम
राह देखते हम।
63
साँस -साँस में
चन्दन की खुशबू
याद बसी तुम्हारी,
रमी है ऐसे-
जैसे तन में बसे
प्राणों की संजीवनी।
64
जीवन-रण
कटता जाए शीश
यहाँ हज़ारों बार,
आहें भी नहीं
निकली मुँह से भी
चूकते नहीं वार।
65
सांध्य गगन
या उतरा आँगन
कुसुमित यौवन,
रूप तुम्हारा
बहता छल-छल
ज्यों निर्झर चंचल।
66
अधर खिले
पिया मदिर मधु
जगे जड़-चेतन,
अँगड़ाई ले
बहा मन्द पवन
सिंचित तन-मन।
67
नीलम नभ
धुँआँ पीकर मरा
साँस-साँस अटकी
हम न जागे
हरित वसुंधरा
द्रौपदी बना लूटी।