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कवि        
:  :  :ओ, मज़दूर - किसानो !<br>::  :    अपना पथ पहचानो !<br>
श्रमजीवी गण:   :::  हुआ युगों से शोषण,<br>::  :    जकड़े अगणित बंधन !<br>
बालक ::  :  अधनंगे हैं निर्धन !<br>
औरतें :           :::  दुख और अभावों में:                       ::काट रहे हैं जीवन !<br>
कवि :::   बदल चुका है जग में::   :    आज ज़माना, मानों !<br>::   :    ओ, मज़दूर-किसानो !<br>::   :     अपना पथ पहचानो !<br>
बालक:     :::      हम हैं सोये भूखे,<br>                 :::खा कुछ टुकड़े सूखे !<br>:औरतें         :::     स्वाभिमान खंडित: ::                                                
:::       पग - पग अपमानित,<br>
::   :   छाया तिमिर घना::    :   जीवन भार बना !<br>
कवि ::       :     अब हुआ नया प्रभात !<br>
:::  छिन्न अंध - ग्रस्त - रात !<br>
:::  अब हुआ नया प्रभात !<br>
श्रमजीवी::       :    यह सरमायादारी ? <BR>
:::  यह क्रूर ज़मीदारी ? <BR>
:::  .....
:::  धर कर रूप पिशाचिन<BR>
(समवेत)::      :     टूटी हम पर !<br>
:::  टूटी हम पर !<br>
कवि::     :      अब भय की बात नहीं !<br>
:::  मिटने का उनका क्षण<BR>
:::  आया है आज यहीं !<br>
:::  जागो, जागो !<br>
:::  ओ, युग-युग से सोये<BR>
:::
:::  जन-जन के अरमानो !<br>
:::  ओ, मज़दूर - किसानो !<br>
:::   अपना पथ पहचानो !<br>
सहगान ::  :   हाँ , दूर क्षितिज पर आशा के घन,<br>
::: घिरता जाता प्रतिक्षण पूर्ण गगन !<br>
::: नव-जीवन का संदेश सनातन<BR>
::: गूँज रहा जिससे जग का कण-कण !<br>
कवि ::  :      लो, बंधन का भार ढहा जाता,<br>
:::युग मुक्त-नया-संगीत सुनाता !<br>
सहगान: ::हम अभिनव रूप निहार रहे,<br>
:::उजड़ा तन-मन आज सँवार रहे !<br>
:::हम पहचान चलेंगे अपनापन,<br>