भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मन करता है / कीर्ति चौधरी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कीर्ति चौधरी }} मन करता है झर जाते हैं शब्द हृदय में प...)
 
 
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया)
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
 
|रचनाकार=कीर्ति चौधरी
 
|रचनाकार=कीर्ति चौधरी
 
}}
 
}}
 
 
 
मन करता है
 
 
  
 
झर जाते हैं शब्द हृदय में
 
झर जाते हैं शब्द हृदय में
पंक्ति 13: पंक्ति 8:
 
पंखुरियों-से
 
पंखुरियों-से
  
उन्हें समेटूँ,तुमको दे दूँ
+
उन्हें समेटूँ, तुमको दे दूँ
  
 
मन करता है  
 
मन करता है  
पंक्ति 53: पंक्ति 48:
 
हृदय में पंखुरियों-से
 
हृदय में पंखुरियों-से
  
उन्हें समेटूँ,तुमको देदूँ
+
उन्हें समेटूँ, तुमको देदूँ
 
+
मन करता है।
+
 
+
 
+
 
+
 
+
{{KKGlobal}}
+
{{KKRachna
+
|रचनाकार=कीर्ति चौधरी
+
}}
+
 
+
प्यार की बातें
+
 
+
 
+
आअो करें प्यार की बातें
+
 
+
दिल जैसे घबराता है
+
 
+
कैसे-कैसे संशय उठते
+
 
+
क्या-क्या मन में आता है
+
 
+
 
+
छूट न जाए साथ
+
 
+
जतन से जिसको हमने जोड़ा था
+
 
+
पाने को सान्निध्य तुम्हारा
+
 
+
क्या-क्या छोड़ा-जोड़ा था
+
 
+
 
+
समय हमारे बीच बैठकर
+
 
+
टाँक गया कहनी-अनकहनी
+
 
+
भूलें की थी,दर्प किया था
+
 
+
चोटें की थी अौर सहा था
+
 
+
 
+
आअो उसे मिटाएँ
+
 
+
फिर से लिखें कहानी
+
 
+
उन यादों की
+
 
+
भूली-बिसरी बातें
+
 
+
मेरी अौर तुम्हारी
+
 
+
जिनसे शुरु किया था जीवन
+
 
+
फिर दुहराएँ
+
 
+
 
+
आअो करें प्यार की बातें ।
+
 
+
 
+
 
+
 
+
{{KKGlobal}}
+
{{KKRachna
+
|रचनाकार=कीर्ति चौधरी
+
}}
+
 
+
फूल झर गए
+
 
+
 
+
फूल झर गए।
+
 
+
 
+
क्षण-भर की ही तो देरी थी
+
 
+
अभी-अभी तो दृष्टि फेरी थी-
+
 
+
इतने में सौरभ के प्राण हर गए;
+
 
+
फूल झर गए।
+
 
+
 
+
दिन-दो दिन जीने की बात थी,
+
 
+
आख़िर तो खानी ही मात थी;
+
 
+
फिर भी मुरझाए तो व्यथा भर गए-
+
 
+
फूल झर गए।
+
 
+
 
+
तुमको अौí मुझको भी जाना है-
+
 
+
सृष्टि का अटल विधान माना है;
+
 
+
लौटे कब प्राण गेह बाहर गए-
+
 
+
फूल झर गए।
+
 
+
 
+
फूलों सम आअो हँस हम भी झरें
+
 
+
रंगों के बीच ही जिएँ अौí मरें
+
 
+
पुष्प अरे गए किंतु खिलकर गए-
+
 
+
  
फूल झर गए।
+
मन करता है।

00:15, 26 अगस्त 2008 के समय का अवतरण

झर जाते हैं शब्द हृदय में

पंखुरियों-से

उन्हें समेटूँ, तुमको दे दूँ

मन करता है


गहरे नीले नर्म गुलाबी

पीले सुर्ख लाल

कितने ही रंग हृदय में

झलक रहे हैं


उन्हें सजाकर तुम्हें दिखाऊँ

मन करता है


खुशबू की लहरें उठती हैं

जल तरंग-सी

बजती है रागिनी हृदय में

उसे सुनूँ मैं साथ तुम्हारे

मन करता है


कितनी बातें

कितनी यादें भाव-भरी

होंठों तक आतीं

झर जाते हैं शब्द

हृदय में पंखुरियों-से

उन्हें समेटूँ, तुमको देदूँ

मन करता है।