"रश्मिरथी / पंचम सर्ग / भाग 5" के अवतरणों में अंतर
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+ | ‘‘खोला न गूढ़ जो भेद कभी जीवन में, | ||
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+ | आवरण पड़ा ही सब कुछ पर रहने दो, | ||
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+ | ‘‘केशव पर चिन्ता डाल, अभय हो रहना, | ||
+ | इस पार्थ भाग्यशाली का भी क्या कहना ! | ||
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+ | ‘‘लेकिन, यह होगा नहीं, देवि ! तुम जाओ, | ||
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+ | ‘‘कुरूपति का मेरे रोम-रोम पर ऋण है, | ||
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+ | छल किया अगर, तो क्या जग मंे यश लूँगा ? | ||
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+ | ‘‘हो चुका धर्म के ऊपर न्यौछावर हूँ, | ||
+ | मैं चढ़ा हुआ नैवेद्य देवता पर हूँ। | ||
+ | अर्पित प्रसून के लिए न यों ललचाओ, | ||
+ | पूजा की वेदी पर मत हाथ बढ़ाओ।’’ | ||
+ | |||
+ | राधेय मौन हो रहा व्यथा निज कह के, | ||
+ | आँखों से झरने लगे अश्रु बह-बह के। | ||
+ | कुन्ती के मुख में वृथा जीभ हिलती थी, | ||
+ | कहने को कोई बात नहीं मिलती थी। | ||
+ | |||
+ | अम्बर पर मोती-गुथे चिकुर फैला कर, | ||
+ | अंजन उँड़ेल सारे जग को नहला कर, | ||
+ | साड़ी में टाँकें हुए अनन्त सितारे, | ||
+ | थी घूम रही तिमिरांचल निशा पसारे। | ||
+ | |||
+ | थी दिशा स्तब्ध, नीरव समस्त अग-जग था, | ||
+ | कुंजों में अब बोलता न कोई खग था, | ||
+ | झिल्ली अपना स्वर कभी-कभी भरती थी, | ||
+ | जल में जब-तब मछली छप-छप करती थी। | ||
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23:09, 7 जुलाई 2013 के समय का अवतरण
‘‘सोचो, जग होकर कुपित दण्ड क्या देता,
कुत्सा, कलंक के सिवा और क्या लेता ?
उड़ जाती रज-सी ग्लानि वायु में खुल कर,
तुम हो जातीं परिपूत अनल में घुल कर।
‘‘शायद, समाज टूटता वज्र बन तुम पर,
शायद, घिरते दुख के कराल घन तुम पर।
शायद, वियुक्त होना पड़ता परिजन से,
शायद, चल देना पड़ता तुम्हें भवन से।
‘‘पर, सह विपत्ति की मार अड़ी रहतीं तुम,
जग के समक्ष निर्भिक खड़ी रहतीं तुम।
पी सुधा जहर को देख नहीं घबरातीं,
था किया प्रेम तो बढ़ कर मोल चुकातीं।
‘‘भोगतीं राजसुख रह कर नहीं महल में,
पालतीं खड़ी हो मुझे कहीं तरू-तल में।
लूटतीं जगत् में देवि ! कीर्ति तुम भारी,
सत्य ही, कहातीं सती सुचरिता नारी।
‘‘मैं बड़े गर्व से चलता शीश उठाये,
मन को समेट कर मन में नहीं चुराये।
पाता न वस्तु क्या कर्ण पुरूष अवतारी,
यदि उसे मिली होती शुचि गोद तुम्हारी ?
‘‘पर, अब सब कुछ हो चुका, व्यर्थ रोना है,
गत पर विलाप करना जीवन खोना है।
जो छूट चुका, कैसे उसको पाऊँगा ?
लौटूँगा कितनी दूर ? कहाँ जाऊँगा ?
‘‘छीना था जो सौभाग्य निदारूण होकर,
देने आयी हो उसे आज तुम रोकर।
गंगा का जल हो चुका, परन्तु, गरल है
लेना-देना उसका अब, नहीं सरल है।
‘‘खोला न गूढ़ जो भेद कभी जीवन में,
क्यों उसे खोलती हो अब चौथेपन में ?
आवरण पड़ा ही सब कुछ पर रहने दो,
बाकी परिभव भी मुझको ही सहने दो।
‘‘पय से वंचित, गोदी से निष्कासित कर,
परिवार, गोत्र, कुल सबसे निर्वासित कर,
फेंका तुमने मुझ भाग्यहीन को जैसे,
रहने तो त्यक्त, विषण्ण आज भी वैसे।
‘‘है वृथा यत्न हे देवि ! मुझे पाने का,
मैं नहीं वंश में फिर वापस जाने का।
दी बिता आयु सारी कुलहीन कहा कर,
क्या पाऊँगा अब उसे आज अपना कर ?
‘‘यद्यपि जीवन की कथा कलंकमयी है,
मेरे समीप लेकिन, वह नहीं नयी है
जो कुछ तुमने है कहा बड़े ही दुख से,
सुन उसे चुका हूँ मैं केशव के मुख से।
‘‘जानें, सहसा तुम सबने क्या पाया है,
जो मुझ पर इतना प्रेम उमड़ आया है।
अब तक न स्नेह से कभी किसी ने हेरा,
सौभाग्य किन्तु, जग पड़ा अचानक मेरा।
‘‘मैं खूब समझता हूँ कि नीति यह क्या है,
असमय में जन्मी हुई प्रीति यह क्या है।
जोड़ने नहीं बिछुड़े वियुक्त कुलजन से,
फोड़ने मुझे आयी हो दुर्योधन से।
‘‘सिर पर आकर जब हुआ उपस्थित रण है,
हिल उठा सोच परिणाम तुम्हारा मन है।
अंक मे न तुम मुझको भरने आयी हो,
कुरूपति को कुछ दुर्बल करने आयी हो।
‘‘अन्यथा, स्नेह की वेगमयी यह धारा,
तट को मरोड़, झकझोर, तोड़ कर कारा,
भुज बढ़ा खींचने मुझे न क्यों आयी थी ?
पहले क्यों यह वरदान नहीं लायी थी ?
‘‘केशव पर चिन्ता डाल, अभय हो रहना,
इस पार्थ भाग्यशाली का भी क्या कहना !
ले गये माँग कर, जनक कवच-कुण्डल को,
जननी कुण्ठित करने आयीं रिपु-बल को।
‘‘लेकिन, यह होगा नहीं, देवि ! तुम जाओ,
जैसे भी हो, सुत का सौभाग्य मनाओ,
दें छोड़़ भले ही कभी कृष्ण अर्जुन को,
मैं नहीं छोड़ने वाला दुर्योधन को।
‘‘कुरूपति का मेरे रोम-रोम पर ऋण है,
आसान न होना उससे कभी उऋण है।
छल किया अगर, तो क्या जग मंे यश लूँगा ?
प्राण ही नहीं, तो उसे और क्या दूँगा ?
‘‘हो चुका धर्म के ऊपर न्यौछावर हूँ,
मैं चढ़ा हुआ नैवेद्य देवता पर हूँ।
अर्पित प्रसून के लिए न यों ललचाओ,
पूजा की वेदी पर मत हाथ बढ़ाओ।’’
राधेय मौन हो रहा व्यथा निज कह के,
आँखों से झरने लगे अश्रु बह-बह के।
कुन्ती के मुख में वृथा जीभ हिलती थी,
कहने को कोई बात नहीं मिलती थी।
अम्बर पर मोती-गुथे चिकुर फैला कर,
अंजन उँड़ेल सारे जग को नहला कर,
साड़ी में टाँकें हुए अनन्त सितारे,
थी घूम रही तिमिरांचल निशा पसारे।
थी दिशा स्तब्ध, नीरव समस्त अग-जग था,
कुंजों में अब बोलता न कोई खग था,
झिल्ली अपना स्वर कभी-कभी भरती थी,
जल में जब-तब मछली छप-छप करती थी।