भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"देखना और सुनना / वेणु गोपाल" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वेणु गोपाल |संग्रह=हवाएँ चुप नहीं रहतीं / वेणु गोपाल }} <po...) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 7: | पंक्ति 7: | ||
देखने के नाम पर | देखने के नाम पर | ||
− | |||
मेरे पास सिर्फ़ वह अंधेरा है | मेरे पास सिर्फ़ वह अंधेरा है | ||
− | |||
जो बढ़ता ही चला जा रहा है | जो बढ़ता ही चला जा रहा है | ||
− | |||
लेकिन सुनने के नाम पर | लेकिन सुनने के नाम पर | ||
− | |||
ढेर सारी किलकारियाँ हैं | ढेर सारी किलकारियाँ हैं | ||
− | |||
घुटनों के बल | घुटनों के बल | ||
− | |||
खिसक-खिसक कर आते हुए बच्चे की। | खिसक-खिसक कर आते हुए बच्चे की। | ||
− | |||
मैं | मैं | ||
− | |||
जो कुछ भी देख पा रहा हूँ | जो कुछ भी देख पा रहा हूँ | ||
− | |||
वह आज है। | वह आज है। | ||
− | |||
लेकिन जो सुन रहा हूँ | लेकिन जो सुन रहा हूँ | ||
− | |||
वह आने वाला कल है। | वह आने वाला कल है। | ||
− | |||
(रचनाकाल : 05.01.1978) | (रचनाकाल : 05.01.1978) |
15:19, 6 सितम्बर 2008 के समय का अवतरण
देखने के नाम पर
मेरे पास सिर्फ़ वह अंधेरा है
जो बढ़ता ही चला जा रहा है
लेकिन सुनने के नाम पर
ढेर सारी किलकारियाँ हैं
घुटनों के बल
खिसक-खिसक कर आते हुए बच्चे की।
मैं
जो कुछ भी देख पा रहा हूँ
वह आज है।
लेकिन जो सुन रहा हूँ
वह आने वाला कल है।
(रचनाकाल : 05.01.1978)