भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"उर्दू की मुख़ालिफ़त में / नोमान शौक़" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: eSa ugha pkgrk dksbZ >jus ds laxhr lkNomaan Shauque esjh gj rku lqurk jgs ,d Åaph igkM+h i* cSBk gqvk flj dks /kqurk jgsA ...)
 
 
(3 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 6 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 +
{{KKGlobal}}
 +
{{KKRachna
 +
|रचनाकार=नोमान शौक़
 +
}}
 +
{{KKCatNazm}}
 +
<poem>
 +
मैं नहीं चाहता
 +
कोई झरने के संगीत सा
 +
मेरी हर तान सुनता रहे
 +
एक ऊँची पहाड़ी प' बैठा हुआ
 +
सिर को धुनता रहे।
  
eSa ugha pkgrk
+
मैं अब
dksbZ >jus ds laxhr lk[[चित्र:IMG2672A.jpg|thumb|250px|Nomaan Shauque]]
+
झुंझलाहट का पुर-शोर सैलाब हूँ
esjh gj rku lqurk jgs
+
क़स्बा व शहर को एक गहरे समुन्दर
,d Åaph igkM+h i* cSBk gqvk
+
में ग़र्क़ाब करने के दर पे हूँ।
flj dks /kqurk jgsA
+
  
eSa vc
+
मैं नहीं चाहता
>qa>ykgV dk iqj&'kksj lSykc gwa
+
मेरी चीख़ को शायरी जानकर
d+Lc%&o&'kgj dks ,d xgjs leqUnj
+
क़द्रदानों के मजमे में ताली बजे
esa x+d+Zkc djus ds njiS gwaA
+
वाहवाही मिले
 +
और मैं अपनी मसनद प' बैठा हुआ
 +
पान खाता रहूँ
 +
मुस्कुराता रहूँ।
  
eSa ugha pkgrk
+
मैं नहीं चाहता
esjh ph[k+ dks 'kk;jh tkudj
+
कटे बाज़ुओं से मिरे
d+nznkuksa ds etes esa rkyh cts
+
क़तरा क़तरा टपकते हुए
okgokgh feys
+
सुर्ख़ सैयाल मे कीमिया घोलकर
vkSj eSa viuh elun i* cSBk gqvk
+
एक ख़ुशरंग पैकर बनाए
iku [kkrk jgwa
+
रऊनत का मारा मुसव्विर कोई
eqLdqjkrk jgwaA
+
और ख़ुदाई का दावा करे।
  
eSa ugha pkgrk
+
इक ज़माने तलक
dVs ckt+qvksa ls fejs
+
अपने जैसों के काँधों पे'
d+rjk d+rjk Vidrs gq,
+
सिर रखके रोते रहे
lq[k+Z lS;ky es dhfe;k ?kksydj
+
मैं भी और मेरे अजदाद भी
,d [k+q'kjax iSdj cuk,
+
अपने कानों में ही सिसकियाँ भरते-भरते
jÅur dk ekjk eqlfOoj dksbZ
+
मैं तंग आ चुका
vkSj [k+qnkbZ dk nkok djsA
+
बस -
  
bd t+ekus ryd
+
अपने हिस्से का ज़हर
vius tSlksa ds dka/kksa is*
+
अब मुख़ातिब की शह-रग में भी
flj j[kds jksrs jgs
+
दौड़ता, शोर करता हुआ
eSa Hkh vkSj esjs vtnkn Hkh
+
देखना चाहता हूँ।
vius dkuksa esa gh fllfd;ka Hkjrs Hkjrs
+
eSa rax vk pqdk
+
cl &
+
  
vius fgLls dk t+gj
+
मैं नहीं चाहता
vc eq[k+kfrc dh 'kg&jx esa Hkh
+
गालियाँ दूँ किसी को
nkSM+rk] 'kksj djrk gqvk
+
तो वह मुस्कुरा कर कहे -'मरहबा'
ns[kuk pkgrk gwaA
+
मुझे इतनी मीठी जुबाँ की
 
+
ज़रुरत नहीं।
eSa ugha pkgrk
+
</poem>
xkfy;ka nwa fdlh dks
+
rks og eqLdqjk dj dgs &^ejgck^
+
eq>s bruh ehBh tq+cka dh
+
t+#jr ughaA
+

19:07, 11 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

मैं नहीं चाहता
कोई झरने के संगीत सा
मेरी हर तान सुनता रहे
एक ऊँची पहाड़ी प' बैठा हुआ
सिर को धुनता रहे।

मैं अब
झुंझलाहट का पुर-शोर सैलाब हूँ
क़स्बा व शहर को एक गहरे समुन्दर
में ग़र्क़ाब करने के दर पे हूँ।

मैं नहीं चाहता
मेरी चीख़ को शायरी जानकर
क़द्रदानों के मजमे में ताली बजे
वाहवाही मिले
और मैं अपनी मसनद प' बैठा हुआ
पान खाता रहूँ
मुस्कुराता रहूँ।

मैं नहीं चाहता
कटे बाज़ुओं से मिरे
क़तरा क़तरा टपकते हुए
सुर्ख़ सैयाल मे कीमिया घोलकर
एक ख़ुशरंग पैकर बनाए
रऊनत का मारा मुसव्विर कोई
और ख़ुदाई का दावा करे।

इक ज़माने तलक
अपने जैसों के काँधों पे'
सिर रखके रोते रहे
मैं भी और मेरे अजदाद भी
अपने कानों में ही सिसकियाँ भरते-भरते
मैं तंग आ चुका
बस -

अपने हिस्से का ज़हर
अब मुख़ातिब की शह-रग में भी
दौड़ता, शोर करता हुआ
देखना चाहता हूँ।

मैं नहीं चाहता
गालियाँ दूँ किसी को
तो वह मुस्कुरा कर कहे -'मरहबा'
मुझे इतनी मीठी जुबाँ की
ज़रुरत नहीं।