"बनजारा मन / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’" के अवतरणों में अंतर
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− | मानव-जीवन बहुत कठिन है। यदि कोई किसी से नफ़रत करे, तो वह दुष्ट कहलाएगा, यदि प्यार करे, अपनापन जताए, तो शंका की दृष्टि से देखा जाएगा कि इसका कुछ न कुछ निहित स्वार्थ अवश्य है। आज संसार के कठिन दौर ने यह सिद्ध कर दिया है कि व्यक्ति नियति के हाथ का खिलौना है। इस विकट समय में | + | |
− | लड़कर कोई किसी की नफ़रत पा सकता है, रुपया-पैसा, जमीन-जायदाद सब कुछ_ लेकिन आत्मीयता कभी नहीं पा सकता। व्यक्ति हो या राष्ट्र, दुनिया भर से लड़कर जीतने वाला अपनों से हार जाता है। वह अगर जीत भी जाए, तो उसकी यह जीत भी किसी हार से कम नहीं। युधिष्ठिर ने इसे महसूस किया, तो विजय के बाद भी सबके साथ चल दिए हिमालय पर गलने के लिए। वैश्विक सन्दर्भ में भी इसको भली-भाँति समझा जा सकता है। विश्व का अहित सोचने वाला वर्ग, दूसरों को नष्ट करके जिस क्रूर आनन्द का अनुभव करता है, एक दिन वह क्रूर आनन्द उसके लिए भी मरणान्तक पीड़ा बन जाता है। विषम काल आने पर इसका | + | मानव-जीवन बहुत कठिन है। यदि कोई किसी से नफ़रत करे, तो वह दुष्ट कहलाएगा, यदि प्यार करे, अपनापन जताए, तो शंका की दृष्टि से देखा जाएगा कि इसका कुछ न कुछ निहित स्वार्थ अवश्य है। आज संसार के कठिन दौर ने यह सिद्ध कर दिया है कि व्यक्ति नियति के हाथ का खिलौना है। इस विकट समय में आख़िर संवेदनशील मानव कहाँ जाए! जिसने दो पल आराम न किया हो, सदा दूसरों के लिए ही सोचा हो, आज वह चौराहे पर नितान्त अकेला खड़ा रह जाए, या श्मशान में पड़ा रह जाए! दूर-दूर तक कोई उसका सगा न हो, तो उसकी आत्मा पर क्या गुज़रेगी। दूसरों के लिए अहर्निश चिन्ता करने वाला फिर तो पागल ही कहलाएगा। घोर चुप्पी से उपजा विषाद उसका सब कुछ छीन लेगा। किसी से संवाद न होने की व्यथा कितनी गहरी है, इसकी केवल कल्पना की जा सकती है, इसका यथार्थ तो कोई भुक्तभोगी ही बता सकता है। यह संवादहीनता आज का युग-सत्य है। |
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− | मन की स्थिति भी बनजारे जैसी होती है। बनजारा सबका है, सबके लिए है; लेकिन अभिशप्त है कि वह किसी का नहीं। वह अपना सामान लादे आज यहाँ, तो कल कहीं और चल देगा। कमोबेश कवि भी मूलतः ऐसा ही होता है; उसकी कविता भी वैसी ही होती है, जैसा वह है। पूरा संसार उसका है, पर उसका कोई घर-द्वार नहीं। ऐसे लोगों के घर-द्वार होते भी नहीं। | + | लड़कर कोई किसी की नफ़रत पा सकता है, रुपया-पैसा, जमीन-जायदाद सब कुछ_ लेकिन आत्मीयता कभी नहीं पा सकता। व्यक्ति हो या राष्ट्र, दुनिया भर से लड़कर जीतने वाला अपनों से हार जाता है। वह अगर जीत भी जाए, तो उसकी यह जीत भी किसी हार से कम नहीं। युधिष्ठिर ने इसे महसूस किया, तो विजय के बाद भी सबके साथ चल दिए हिमालय पर गलने के लिए। वैश्विक सन्दर्भ में भी इसको भली-भाँति समझा जा सकता है। विश्व का अहित सोचने वाला वर्ग, दूसरों को नष्ट करके जिस क्रूर आनन्द का अनुभव करता है, एक दिन वह क्रूर आनन्द उसके लिए भी मरणान्तक पीड़ा बन जाता है। विषम काल आने पर इसका ज़रूर पता चलता है कि कौन उदार है, कौन क्रूर है। सर्वाधिक क्रूर वह है, जो वैश्विक संकटकाल में भी दुष्टवृत्ति से विमुख नहीं होता। |
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+ | आदमी को आदमी बनाने में काव्य कहीं पीछे छूट गया है, जिसका कारण है, लोक-कल्याण की भावना का तिरोहित होना। मैं काव्य के आस्वाद की बात करूँ, तो मेरा अभिमत है कि काव्य अभिधा में नहीं ज़िया जा सकता। कवि अपने परिवेश से बहुत उद्वेलित होता है। कवि-कल्पना उसकी रचना का शृंगार करती है, उसकी संवेदना उसकी अनुभूति को व्यापक बनाती है। यदि कोई सोचे कि कवि हर पंक्ति में अपना ही रोना रो रहा है, तो यह पाठक की भूल है। पाठक को साधारण शब्दों के सामान्य अर्थ से बाहर निकलना पड़ेगा। पाठक यदि जीवन का गहन अध्येता हुआ, तो वह कवि के उस अर्थ को भी ग्रहण सकता है, जो कहीं कवि के अवचेतन में रहा होगा। यदि पाठक उथली सोच का हुआ, तो वह गली-मुहल्ले के नुक्कड़ से बाहर नहीं जाएगा, अर्थ का अनर्थ करने में ही पूरी शत्तिफ़ ख़र्च कर देगा, जिससे कोल्हू के बैल की तरह कहीं नहीं पहुँचेगा। | ||
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+ | मन की स्थिति भी बनजारे जैसी होती है। बनजारा सबका है, सबके लिए है; लेकिन अभिशप्त है कि वह किसी का नहीं। वह अपना सामान लादे आज यहाँ, तो कल कहीं और चल देगा। कमोबेश कवि भी मूलतः ऐसा ही होता है; उसकी कविता भी वैसी ही होती है, जैसा वह है। पूरा संसार उसका है, पर उसका कोई घर-द्वार नहीं। ऐसे लोगों के घर-द्वार होते भी नहीं। 'मन बनजारा' में मैं अकेला नहीं; बल्कि वे सभी जाने-अनजाने लोग भी हैं, जो मेरे परिवेश में रहे, मेरी कल्पना का हिस्सा रहे और हैं। सबको नमन! | ||
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छन्द का कोई आग्रह मेरे मन में नहीं रहा। जैसा बना, लिख दिया। आपको कोई छवि अच्छी लगे, तो मेरा परिश्रम सार्थक होगा। | छन्द का कोई आग्रह मेरे मन में नहीं रहा। जैसा बना, लिख दिया। आपको कोई छवि अच्छी लगे, तो मेरा परिश्रम सार्थक होगा। | ||
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+ | '''रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'''' | ||
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6 जून 2020 | 6 जून 2020 |
10:51, 23 मई 2022 के समय का अवतरण
कृपया kavitakosh AT gmail DOT com पर भेजें
रचनाकार | रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' |
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प्रकाशक | अयन प्रकाशन, 1/20 महरौली , नई दिल्ली-110030 |
वर्ष | 2020 |
भाषा | हिन्दी |
विषय | कविताएँ |
विधा | |
पृष्ठ | 148 |
ISBN | 978-93-89999-27-3 |
विविध | मूल्य(पेपर बैक) :100 रुपये |
बनजारा मन: प्रवहमान रचनाशीलता की द्योतक / कविता भट्ट -निम्नलिखित लिन्क पर-
जीवनधारा
मानव-जीवन बहुत कठिन है। यदि कोई किसी से नफ़रत करे, तो वह दुष्ट कहलाएगा, यदि प्यार करे, अपनापन जताए, तो शंका की दृष्टि से देखा जाएगा कि इसका कुछ न कुछ निहित स्वार्थ अवश्य है। आज संसार के कठिन दौर ने यह सिद्ध कर दिया है कि व्यक्ति नियति के हाथ का खिलौना है। इस विकट समय में आख़िर संवेदनशील मानव कहाँ जाए! जिसने दो पल आराम न किया हो, सदा दूसरों के लिए ही सोचा हो, आज वह चौराहे पर नितान्त अकेला खड़ा रह जाए, या श्मशान में पड़ा रह जाए! दूर-दूर तक कोई उसका सगा न हो, तो उसकी आत्मा पर क्या गुज़रेगी। दूसरों के लिए अहर्निश चिन्ता करने वाला फिर तो पागल ही कहलाएगा। घोर चुप्पी से उपजा विषाद उसका सब कुछ छीन लेगा। किसी से संवाद न होने की व्यथा कितनी गहरी है, इसकी केवल कल्पना की जा सकती है, इसका यथार्थ तो कोई भुक्तभोगी ही बता सकता है। यह संवादहीनता आज का युग-सत्य है।
लड़कर कोई किसी की नफ़रत पा सकता है, रुपया-पैसा, जमीन-जायदाद सब कुछ_ लेकिन आत्मीयता कभी नहीं पा सकता। व्यक्ति हो या राष्ट्र, दुनिया भर से लड़कर जीतने वाला अपनों से हार जाता है। वह अगर जीत भी जाए, तो उसकी यह जीत भी किसी हार से कम नहीं। युधिष्ठिर ने इसे महसूस किया, तो विजय के बाद भी सबके साथ चल दिए हिमालय पर गलने के लिए। वैश्विक सन्दर्भ में भी इसको भली-भाँति समझा जा सकता है। विश्व का अहित सोचने वाला वर्ग, दूसरों को नष्ट करके जिस क्रूर आनन्द का अनुभव करता है, एक दिन वह क्रूर आनन्द उसके लिए भी मरणान्तक पीड़ा बन जाता है। विषम काल आने पर इसका ज़रूर पता चलता है कि कौन उदार है, कौन क्रूर है। सर्वाधिक क्रूर वह है, जो वैश्विक संकटकाल में भी दुष्टवृत्ति से विमुख नहीं होता।
आदमी को आदमी बनाने में काव्य कहीं पीछे छूट गया है, जिसका कारण है, लोक-कल्याण की भावना का तिरोहित होना। मैं काव्य के आस्वाद की बात करूँ, तो मेरा अभिमत है कि काव्य अभिधा में नहीं ज़िया जा सकता। कवि अपने परिवेश से बहुत उद्वेलित होता है। कवि-कल्पना उसकी रचना का शृंगार करती है, उसकी संवेदना उसकी अनुभूति को व्यापक बनाती है। यदि कोई सोचे कि कवि हर पंक्ति में अपना ही रोना रो रहा है, तो यह पाठक की भूल है। पाठक को साधारण शब्दों के सामान्य अर्थ से बाहर निकलना पड़ेगा। पाठक यदि जीवन का गहन अध्येता हुआ, तो वह कवि के उस अर्थ को भी ग्रहण सकता है, जो कहीं कवि के अवचेतन में रहा होगा। यदि पाठक उथली सोच का हुआ, तो वह गली-मुहल्ले के नुक्कड़ से बाहर नहीं जाएगा, अर्थ का अनर्थ करने में ही पूरी शत्तिफ़ ख़र्च कर देगा, जिससे कोल्हू के बैल की तरह कहीं नहीं पहुँचेगा।
मन की स्थिति भी बनजारे जैसी होती है। बनजारा सबका है, सबके लिए है; लेकिन अभिशप्त है कि वह किसी का नहीं। वह अपना सामान लादे आज यहाँ, तो कल कहीं और चल देगा। कमोबेश कवि भी मूलतः ऐसा ही होता है; उसकी कविता भी वैसी ही होती है, जैसा वह है। पूरा संसार उसका है, पर उसका कोई घर-द्वार नहीं। ऐसे लोगों के घर-द्वार होते भी नहीं। 'मन बनजारा' में मैं अकेला नहीं; बल्कि वे सभी जाने-अनजाने लोग भी हैं, जो मेरे परिवेश में रहे, मेरी कल्पना का हिस्सा रहे और हैं। सबको नमन!
छन्द का कोई आग्रह मेरे मन में नहीं रहा। जैसा बना, लिख दिया। आपको कोई छवि अच्छी लगे, तो मेरा परिश्रम सार्थक होगा।
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
6 जून 2020