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दराज़ / इब्बार रब्बी

3 bytes added, 09:31, 2 मार्च 2021
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<poem>
बीच की दराज दराज़ में बन्द हूं हूँ ।ऊपर होता हूं हूँ तो
पैर टूटता है
नीचे सरकता हूंहूँ
सिर फूटता है ।
मैं कहां जाऊं कहाँ जाऊँ !क्या करूं करूँ !कैसे रहूं रहूँ इस अन्धेरे में !
कब तक काग़ज़ों से पिचका हुआ !
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